SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१०/तीर्थंकर चरित्र भी कहे, कुछ भी करे। पर किसी को भी प्रतिवाद नहीं करना चाहिए। कोई भी उससे किसी भी प्रकार की चर्चा न करे। “आनंद भगवान् के इस संदेश को सब मुनियों को सुनाने गये। इतने में गोशालक अपने आजीवक संघ के साथ भगवान् के समीप पहुंच गया और बोला- 'काश्यप ! तुमने यह तो सही कहा है कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा शिष्य है, पर वह तुम्हारा शिष्य मंखलिपुत्र कभी का मरकर देवलोक चला गया है। मैं तो उस गोशालक के शरीर प्रविष्ट उदायी कुंडियायन नामक धर्म प्रवर्तक हूं | यह मेरा सातवां शरीरान्तर प्रवेश है। मैं गोशालक नहीं, उससे भिन्न आत्मा हूं। तुम मुझे गोशालक कहते हो, यह सरासर मिथ्या है।' गोशालक के ये असभ्य वचन सर्वानुभूति मुनि से सहे नहीं जा सके। उन्होंने समझाने का प्रयास किया। पर उनके शब्द आग में ईंधन डालने का काम कर गये । गोशालक का इससे क्रोध और भभक गया। उसने तेजोलेश्या को एकत्र करके सर्वानुभूति पर छोड़ दी। इस प्रचंड आग से सर्वानुभूति का शरीर जलकर राख हो गया। मुनि आठवें सहस्रार देवलोक में महर्द्धिक देव बन गये। गोशालक फिर बकने लगा। इस पर सुनक्षत्र मुनि उसे हित-वचन कहने लगे। गोशालक ने सर्वानुभूति की तरह सुनक्षत्र मुनि को भी भस्म कर दिया। कई ऐसा भी मानते है कि सुनक्षत्र मुनि काफी जल गये। अंतिम आलोचना कर मुनि बारहवें अच्युत देवलोक में देव बने । भगवान् पर तेजो लेश्या का प्रयोग महावीर ने कहा-“गोशालक! तू अपने आपको छिपाने का प्रयास मत कर। तू वही गोशालक है जो मेरा शिष्य होकर रहा था । “महावीर के इस सत्य उद्घाटन से गोशालक अत्यन्त क्रोधित हो गया और अनर्गल प्रलाप करने लगा। ___ भगवान् ने उसे अनार्य कृत्य न करने के लिए समझाया, पर उसका कोई असर नहीं हुआ। वह पांच-सात कदम पीछे हटा, अपनी सारी तेजो लेश्या को एकत्रित की और उसे भगवान् की और निकाला। तेजो लेश्या भगवान् का चक्कर काटती हुई ऊपर आकाश में उछली और वापस गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हो गई। तेजो लेश्या के शरीर में घुसते ही गोशालक का शरीर जलने लगा। जलन से व्याकुल गोशालक बोला--'काश्यप ! मेरे तप तेज से तेरा शरीर उत्तप्त हो गया है । अब तू पित्त और दाहज्वर से पीड़ित होकर छह महिने के भीतर छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होगा।" भगवान् महावीर ने कहा-"गोशालक ! मैं छह महीने के भीतर नहीं मरूंगा। मै तो सोलह वर्ष तक इस धरा पर सुखपूर्वक विचरूंगा। तू खुद सात दिन में पित्त-ज्वर से पीड़ित होकर मरेगा।"
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy