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________________ १७२/तीर्थंकर चरित्र कि विशाखनंदी अपने अंतः पुर के साथ जल विहार कर रहा है। विश्वभूति न केवल बलवान् था, अपितु बुद्धिमान भी था। सारे भेद को तुरंत समझने में उसे देर नहीं लगी कि महाराज ने अपने पुत्र के सुख हेतु उसे उद्यान से हटाने के लिए यह पुरुषसिंह के विद्रोह का नाटक रचा है। इस कुटिल चाल से उसे राजा व उसके पुत्र के प्रति बहुत गुस्सा आया। क्रोधावेश में उसने पार्श्व स्थित ताल वृक्ष को मुष्ठि प्रहार कर जोर से झकझोरा । वृक्ष पर लगे फल दनादन गिरने लगे। उसने द्वारपाल को संबोधित करते हुए कहा- 'सुनो, द्वारपाल! मुझे अपनी कुल-मर्यादा व परंपरा के प्रति तनिक भी आदर नहीं होता तो मैं तुम्हारे राजकुमार व झूठे राजा को इन फलों के समान मुष्टि प्रहार से धराशायी कर देता, समाप्त कर देता। विश्वभूति का शरीर क्रोध से कांपने लगा। कुछ क्षणों के बाद उसका गुस्सा शांत हुआ, संवेग का भाव जगा और सोचने लगा-देखो, मैं तो बड़ों के प्रति इतना आदर व प्यार करता था परन्तु ये सब मेरे साथ कपटपूर्ण व्यवहार करते हैं। यह सच है कि यह संसार ही ऐसा है जहां छल-प्रपंच भरा हुआ है। इसी चिंतन में उसने यह निर्णय ले लिया कि उसे संयम स्वीकार कर आत्म कल्याण करना है। यह निर्णय करने के साथ ही वह राजा (चाचा) व माता-पिता के पास न आकर सीधे उस प्रदेश में विचर रहे आर्य संभूत के पास पहुंचा और उल्लसित भाव से चारित्र अंगीकार किया। विश्वभूति के मुनि बनने का संवाद मिलते ही राजा विश्वनंदी अपने पुत्र विशाखनंदी व पूरे परिवार को साथ लेकर आया और अपने अपराध के लिए बार-बार क्षमा मांगी और मुनि-धर्म छोड़कर घर आकर राज्य भार संभालने का आग्रह किया। मुनि विश्वभूति इस प्रलोभन में नहीं फंसे । अपने गुरु की सेवा में रहकर तप-जप के द्वारा आत्मा को भावित करने लगे। निरन्तर लंबी-लंबी तपस्याओं से उनका शरीर कृश हो गया। अब गुरु आज्ञा से एकाकी विहार करने लग गये। उग्र तपस्वी मुनि विश्वभूति मासखमण की तपस्या का पारणा करने हेतु मथुरा नगरी पधारे। उस समय विशाखनंदी भी अपने ससुराल मथुरा आया हुआ था। कृशकाय मुनि को दूर से ही उसके आदमियों ने पहचान लिया। बाद में विशाखनंदी ने भी पहचान लिया। विश्वभूति को देखते ही विशाखनंदी क्रोधित हो गया। उस समय मार्ग से गजर रही गाय की टक्कर से मुनि गिर गये। उस पर विशाखनंदी ने अट्टहास किया और आनंद मनाते हुए व्यंग्य की भाषा में बोला- 'मुष्ठि प्रहार से फल गिराने वाला बल अब कहां गया। यह सुनते ही मुनि की दृष्टि उस पर पड़ी और उसे पहचान लिया। मुनि भी क्षमा धर्म से विचलित हो गये और आवेश में बोले-- अभी भी मैं पहले की भांति बलशाली हूं । तपस्या से कृश जरूर हूँ पर दुर्बल नहीं हूँ।' अपने बल एवं शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए मुनि ने रसी गाय
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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