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________________ भगवान् श्री पार्श्वनाथ/१५९ बंदी-गृह खाली कर दिये गये और याचकों को अयाचक बना दिया गया। नाम के दिन विराट् प्रीतिभोज रखा गया । नाम देने की चर्चा में राजा अश्वसेन ने कहा- 'इसके गर्भकाल में एक बार मैं रानी के साथ उपवन में गया। वहां अंधेरी रात्रि में एक कालिन्दर सर्प आ निकला। काली रात और काला नाग, कैसे दृष्टिगत हो? फिर भी पार्श्व में चलता हुआ सर्प रानी को दिखाई दे गया। वह मुझे जगाकर वहां से अन्यत्र ले गई तभी मैं जीवित बच सका। मेरी दृष्टि में यह गर्भ का ही प्रभाव था, अतः बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा जाये। सभी ने बालक को इसी नाम से पुकारा। विवाह तारुण्य में प्रवेश करते ही पार्श्वकुमार के सुगठित शरीर में अपूर्व सौंदर्य निखर आया। उनके सौन्दर्य की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई। ___ कुशस्थलपुर नरेश प्रसेनजित की पुत्री राजकुमारी प्रभावती ने पार्श्वकुमार के रूप-सौंदर्य का बखान सुनकर मन ही मन प्रतिज्ञा कर ली कि मेरे इस जन्म के पति पार्श्वकुमार ही हैं। विश्व के शेष युवक मेरे भाई के समान है। माता-पिता भी इस प्रतिज्ञा को सुनकर प्रसन्न हुए। वे जल्दी ही अपने मंत्री को वाराणसी भेजने वाले थे कि उन्हीं दिनों कलिंग का युवा नरेश यवन प्रभावती के सौंदर्य की चर्चा सुनकर उससे विवाह के लिए आतुर हो उठा। किन्तु जब उसे प्रभावती की प्रतिज्ञा का पता चला तो रुष्ट होकर बोला- कौन होता है पार्श्वकुमार ? मेरे होते हुए प्रभावती से कोई भी विवाह नहीं कर सकता। उसने तत्काल ससैन्य कुशस्थलपुर को घेर लिया तथा राजा प्रसेनजित से कहलवाया-या तो प्रभावती को दे दो या फिर युद्ध करो। प्रसेनजित धर्मसंकट में पड़ गया। कन्या की इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह कैसे किया जाए? युद्ध करना भी आसान नहीं है। प्रसेनजित ने एक दूत वाराणसी भेजा तथा राजा अश्वसेन के समक्ष सारी स्थिति रखी। दूत से जानकारी मिलने पर अश्वसेन ने क्रुद्ध होकर सेना को तैयार होने का आदेश दे दिया। पार्श्वकुमार भी रणभेरी सुनकर पिताजी के पास आये और स्वयं के युद्ध में जाने की इच्छा प्रकट की। अश्वसेन ने पुत्र का सामर्थ्य देखकर सहर्ष उसे जाने की अनुमति दे दी। इधर शक्रेन्द्र ने अपने सारथी को शस्त्र आदि से सज्जित रथ देकर पार्श्वकुमार की सेवा में भेजा । देव-सारथी ने उपस्थित होकर पार्श्व को नमस्कार किया और इंद्र द्वारा भेजे गये रथ पर बैठकर युद्ध में पधारने की प्रार्थना की। पार्श्वकुमार उसी रथ में बैठकर गगन मार्ग से कुशस्थलपुर की तरफ चले । चतुरंगिणी संग उनके पीछे-पीछे जमीन पर चल रही थी। वाराणसी से प्रस्थान करते ही पार्श्वकुमार ने एक दूत यवनराज के पास भेजा।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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