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________________ १२०/तीर्थकर चरित्र के दिन जब सहवर्ती मित्र संत उनके लिए पारणा ले आते तब कहते कि तुम पारणा करो, मैंने तो आज आहार का त्याग कर दिया है। इस प्रकार छद्मपूर्वक तप एवं अहं और माया की प्रगाढ़ता से उनके स्त्री गोत्र का बन्ध हो गया। विशेष तपस्या एवं निर्जरा के कारण तीर्थंकर गोत्र का भी बंध हुआ। वहां से समाधिमरण पाकर अनुत्तर लोक के वैजयंत विमान में सभी मुनि देव रूप में पैदा हुए। जन्म देवायु भोगकर महाबल मुनि का जीव मिथिला नगरी के राजा कुम्भ के राजमहल में महारानी प्रभावती की कुक्षि में अवतरित हुआ। माता को चौदह महास्वप्न आये। गर्भकाल पूर्ण होने के बाद सबकी आशा के विपरीत एक पुत्री का प्रसन हुआ। उस समय राजघरानों में पुत्र का ही उत्सव होता था, किन्तु देवेन्द्रों ने नवजात बालिका का उत्सव किया। तब राजा कुम्भ भी अपने सहज समुत्पन्न उल्लास को रोक नहीं सके। उन्होंने परम्परा को तोड़कर पुत्री का जन्मोत्सव पुत्र के जन्मोत्सव की भांति मनाया। नामकरण महोत्सव भी विशाल रूप में आयोजित हुआ। राजा कुम्भ ने सबको बताया-'इसके गर्भकाल में रानी को पुष्प-शैय्या पर सोने का दोहद (इच्छा) उत्पन्न हुआ था। जिसे देवों ने पूरा किया था, अतः बालिका का नाम मल्लिकुमारी रखा जाये। मित्रों को प्रतिबोध ____ मल्लिकुमारी के क्रमशः तारुण्य में प्रवेश करते ही उनके सौंदर्य में अद्भुत निखार आ गया। उनके रूप की महिमा दूर-दूर तक फैल गई। इधर मल्लिकुमारी ने अवधि ज्ञान से अपने पूर्व भव के छह मित्रों को जब निकटवर्ती जनपदों में राजा बने देखा, तो उनको प्रतिबोध देने के लिए अपने उद्यान में एक मोहनघर का निर्माण करवाया। उस भवन के मध्य भाग में ठीक अपनी जैसी रूप वाली एक स्वर्ण-पुतली स्थापित की। मूर्ति के चारों ओर छह कक्ष पुतली के सम्मुख बनवाये। कक्षों के भीतर के द्वार इस रूप में खुलते थे कि अन्दर खड़े व्यक्तियों को सिर्फ मूर्ति ही दिखाई दे और कुछ भी नजर न आये। वह पुतली भीतर से खोखली थी तथा गले के पास से खुलती थी। प्रतिदिन मल्लिकुमारी अपने भोजन का एक कौर उस पुतली के गले में डाल देती थी। __उधर अलग-अलग सूत्रों से छहों मित्र राजाओं के पास मल्लिकुमारी के रूप की ख्याति पहुंची। अनुरक्तमना छहों राजाओं ने दूत भेजकर कुम्भ राजा से मल्लिकुमारी के लिए याचना की। राजा कुम्भ के मना कर देने पर छहों राजा सेनाएं लेकर मिथिला की ओर चल पड़े।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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