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________________ १०८/तीर्थकर चरित्र फैला हुआ था। देवों ने उनकी कई तरह से परीक्षाएं ली, पर वे कभी नहीं डिगे। एक बार ईशानेन्द्र ने देवसभा में महाराज मेघरथ की दृढ़ निष्ठा व आचरण की प्रशंसा की। उन्होंने कहा- मेघरथ का ध्यान इतना निश्चल और दृढ़ होता है कि उन्हें विचलित करने में कोई भी देवी देवता समर्थ नहीं है। कुछ सुरांगनाओं को यह बात अटपटी लगी। उन्होंने मेघरथ को चलित करने की मन में ठानी। मेघस्थ उस समय पौषधशाला में पौषध कर रहे थे। वहां आकर देवियों ने वसंत ऋतु की विकुर्वणा की। विस्तृत भोग सामग्री एवं मादक वातावरण निर्मित कर उत्तेजक नृत्य, गहरे हाव-भाव और तीखे कटाक्ष शुरू किये तथा मेघरथ SUMAR OSमति m4 TAIWARA NROEN . a intmVS से रति क्रीड़ा की प्रार्थना की। मेघरथ ने इतना सब होते हुए भी उन सुरबालाओं की तरफ देखा तक भी नहीं। वे अपनी उपासना में लीन बने रहे। सूर्योदय हो गया। इतने उद्यम के बाद भी उनको सफलता नहीं मिली, तो वे हार कर अपने मूल रूप में आयी, अपना परिचय दिया और अविचल रहने के लिए मेघरथ को बधाई दी। ___ अपने पिता तीर्थंकर धनरथ का पुंडरीकिणी नगरी में समवसरण हुआ। मेघरथ ने उनका प्रवचन सुना और उनमें वैराग्य जग गया। उन्होंने अपने पुत्र मेघसेन
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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