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________________ १०४/तीर्थकर चरित्र कुछ दूर चलने पर उसे एक सुन्दर उपवन नजर आया। उपवन के लता-कुंज में उसे नवोढ़ा रमणियों से घिरा हुआ एक युवक नजर आया। निकट पहुंचते ही दोनों ने एक दूसरे को पहचाना। दोनों आलिंगनबद्ध होकर परस्पर मिले । महेन्द्रसिंह के पूछने पर सनत्कुमार ने कहा- 'मेरे लुप्त होने की गाथा मुझसे नहीं, इस विद्याघर कन्या वकुलमती से सुनो।' परम सुन्दरी वकुलमती ने सारा वृत्तान्त सुनाया। राक्षस को पराजित करने की घटना से महेन्द्रसिंह अत्यधिक प्रसन्न हुआ। अपने बाल सखा को माता-पिता की याद दिलाई और चलने का आग्रह किया। सनत्कुमार विद्याधर कन्याओं को लेकर अपने मित्र महेन्द्र के साथ अपनी नगरी में आया। राजा अश्वसेन ने सपरिवार सम्मुख आकर पुत्र की अगवानी की। उसके महान् कार्यों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । राजा ने सहर्ष उसका राज्याभिषेक कर दिया। राजा बनने के कुछ समय पश्चात् सनत्कुमार की आयुधशाला में चक्ररत्न पैदा हुआ। समस्त देश विजित कर सनत्कुमार एक सार्वभौम चक्रवर्ती बन गया। प्रौढ़ावस्था में भी सनत्कुमार के शारीरिक सौन्दर्य में कोई परिवर्तन नहीं आया। एक बार शक्रेन्द्र महाराज ने उनके सौन्दर्य की प्रशंसा की। दो देवता उनका रूप देखने के लिए मृत्यु-लोक में आये। वृद्ध पुरुष का रूप बनाकर वे राजमहल में पहुंचे। आज्ञा पाकर अन्दर गये । चक्रवर्ती स्नान से पूर्व मालिश करवा रहे थे। देवगण उनको देखकर विस्मित हो उठे । चक्रवर्ती सनत्कुमार ने कहा- 'अभी क्या देखा है, सौंन्दर्य ही देखना है तो थोड़ी ही देर में राज्य-सभा में उपस्थित होना। देवों ने कहा- जैसी आज्ञा । देव राज्य सभा में पहुंचे । सनत्कुमार का रूप देखकर उन्होंने अपना सिर धुन लिया। चक्री के पूछने पर कहा- “कीड़े पड़ गये हैं, महाराज के शरीर में, थूक कर देखिये।' चक्रवर्ती ने थूका | ध्यान से देखा तो सचमुच कीड़े नजर आये । चक्रवर्ती को शरीर की नश्वरता का भान हुआ । तत्काल उनका हृदय शारीरिक सौन्दर्य से विरक्त हो गया। सनत्कुमार ने अपने उत्तराधिकारी को राज्य सौंपा तथा भगवान् धर्मनाथ के शासन में दीक्षित होकर उत्कृष्ट तपस्या करने लगे। कालान्तर में वे विविध लब्धियों के धारक बन गये। एक बार स्वर्ग में राजर्षि की पुनः प्रशंसा हुई। तभी उनकी वैदेह भावना की परीक्षा करने के लिए एक देवता वैद्य का रूप बनाकर आया। लोग वैद्य को मुनि के पास लाये । वैद्य रूप में देव ने मुनि को देखकर बोला- 'मेरी दवाई लो, रोग मिट जाएगा।' राजर्षि ने पूछा- " कौनसा रोग मिटाते हो ? द्रव्य या भाव ? द्रव्य रोग मिटाने की क्षमता तो मेरे पास भी है, भाव रोग मिटा सको तो बोलो ?" यों कहते हुए राजर्षि ने कुष्ठग्रस्त स्थान पर अपना थूक लगाया, कुछ ही क्षणों में रोग शान्त हो गया, वहां चमड़ी का रंग ही बदल गया।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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