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________________ रखने का तथा पागल कुत्ते से काटे जाने पर उसे व्याघ्र के चर्म में सुलाने का विधान मिलता है ।1 कुष्ठ रोग हो जाने पर बहुत कष्ट होता है। गलित कुष्ठ होने या शरीर में कच्छु. किटिभ' होने या जुएं पैदा हो जाने पर जैन श्रमणों को निर्लोम चर्म पर लिटाने का प्रयोग मिलता है । पामा की चिकित्सा के लिए में ढे की पुरीष और गोमूत्र काम में लिया जाता था । 'किमिकुट्ट' (कृमिकुष्ठं) में कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं। किसी भिक्षु को कृमिकुष्ठ होने पर उसे वैद्य ने तैल, कम्बल रत्न और गोशीर्ष चन्दन बताया। तैल तो मिल गया, किन्तु कम्बलरत्न और चन्दन नहीं मिला। ये दोनों वस्तुएं एक वणिक् के पास थीं। उसने बिना कुछ लिये ही कम्बल रत्न और चन्दन दे दिये, जबकि शतसहस्र लेकर उपस्थित हुए थे। भिक्षुक के शरीर की तैल से मालिश की गई। जिससे तेल उसके रोम कूपों में भर गया, इससे कृमि संक्षुब्ध होकर नीचे गिरने लगे। साधु को कम्बल ओढा दिया गया और सब कृमि कम्बल पर लग गये, बाद में शरीर पर गोशीर्ष चन्दन का लेप कर दिया गया। 2-3 बार इस प्रकार करने से साधु का कोढ़ बिल्कुल ठीक हो गया। महामारी फैलने पर लोग बहुत मरते थे, जीर्णपुर के किसी सेठ के परिवार में जब सब लोग मर गये तो लोगों ने उसके घर को कांटों से जड़ दिया। __ भगन्दर में से कीड़ों को निकालने के लिए व्रण के अन्दर मांस डाला जाता था ताकि कीड़े उस पर चिपट जाये। मांस के स्थान पर गेहूं के गीले आटे में मधु और घृत मिलाकर भी प्रयोग किया जाता था।" वमन कराने के लिए मक्खी की विष्टा का और आंख का कचरा निकालने के 1 बृहत्कल्पभाष्य 313815-17। (चर्म के उपयोग के लिए द्रष्टव्य सुश्रुतसंहिता सूत्र स्थान अ. 7, श्लो. 14 जंघासु कालाभं रसियं वहति, निशीथचूर्णी 11798 को चूर्णी । बृहत्कल्पभाष्य 313839-40। प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ महावग्ग 1130188 पृ. 76 में उल्लेख है कि मगध में कुष्ठ, गड़ (फोड़ा), किलास, शोथ और मृगी रोग फैल रहे थे। जीवक कौमारभृत्य को लोगों को चिकित्सा करने का सगय भी नहीं मिलता था। इसलिए रोग से पीड़ित लोग बौद्ध भिक्षु बनकर चिकित्सा कराने लगे। 4 प्रोधनियुक्ति 368, पृ. 134-अ. 5 अावश्यकचूर्णी पृ. 133 6 आवश्यकचूर्णी पृ. 465 ' निशीथचूर्णी-पीड़िका 288, पृ. 100 तेल लगाने का भी विधान है, अावश्यकचूर्णी पृ. 503 [ 32 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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