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________________ अध्याय-5 दक्षिण भारत के जैन आयुर्वेद-ग्रंथकार दक्षिण भारत की कर्णाटक प्रांत की कन्नड़, मद्रास प्रांत की तमिल, केरल प्रांत की मलयालम और आन्ध्र प्रदेश की तेलगु भाषाएं मुख्य हैं। उत्तरी और दक्षिणी भारत के मध्यवर्ती सेतु के रूप में पश्चिमी भारत के महाराष्ट्र प्रांत की मराठी भाषा का स्वतंत्र अस्तित्व है जो संस्कृत और प्राचीन शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित है। 'कन्नड़ भाषा' में छठी शती से पहले का काई शिलालेख नहीं मिलता । राष्ट्रकूट नरेश नपतुंग अमोघवर्ष प्रथम (ई. 817 से 877) के द्वारा विरचित 'कविराजमार्ग' नामक कन्नड़ भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ है। इसमें कन्नड़ कवियों का वर्णन है, इससे 9वीं शती से पूर्व में कन्नड़ साहित्य के अस्तित्व का पता चलता है। आगे कन्नड़ भाषा की भौगोलिक सीमा इस प्रकार बतायी गयी है- "कन्नड़ प्रदेश कावेरी से गोदावरी तक फैला है।" महाराष्ट्रो भाषा इसके उत्तर और पश्चिम में फैली थी। कन्नड़ भाषा में जैन विद्वानों के वैद्यक पर अनेक ग्रंथ मिलते हैं। इनमें से कुछ प्रसिद्ध और प्रकाशित भी हैं। तमिल, तेलगु, मलयालय और मराठी में जैनविद्वानों के वैद्यक-नथ का नगण्य हैं ।। कन्नड के जैन आयुर्वेद-ग्रंथकार मारसिंह (961-974) यह कर्णाटक का गंगवंशीय राजा था। इसने 961-964 ई. तक राज्य किया। यह बहुत प्रतापी, प्रतिभासंपन्न और समृद्धिवान् राजा था। जैन धर्म के उत्थान में उसने पर्याप्त योगदान दिया था। उसने जीवन के परवर्ती काल में राज्य त्याग कर बंकापुर में अजितसेन भट्टारक के समीप सल्लेखना धारण की थी। कुडुलूर के दानपत्र में मारसिंह को व्याकरण, तर्क, दर्शन और साहित्य का विद्वान् होने के साथ 'अश्वविद्या' और 'गजविद्या' में भी निपुण बताया गया है । परन्तु उसका अश्व या गज चिकित्सा पर कोई वैद्यकग्रंथ प्राप्त नहीं होता । 1 कैलाशचन्द्र शास्त्री, दक्षिण भारत में जैन धर्म, पृ. 83 ३ मैसूर प्रॉकियोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1921, पृ. 22-23 [176]]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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