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________________ (2) मूत्रपरीक्षा-- यह लघुकृति केवल 37 पद्यों में पूर्ण हुई है। प्राप्त हस्तलिखित प्रति (नवलनाथजी की बगीची बीकानेर) का लेखन काल 'संवत् 1751 वर्ष कार्तिक वदि 6 दिने श्री बीकानेर मध्ये ।' दिया है। अत: इसकी रचना इससे कुछ पूर्व ही होना प्रमाणित होता है। संभवतः यह रचना भी किसी संस्कृत कृति का राजस्थानी में पद्यमय भाषानुवाद है। ग्रंथ का अन्तिम पद्य देखिए 'मूत्रपरीक्षा यह कही, 'लच्छि वल्लभ' कविराज । भाषा बंध सु अतिसुगम, बाल बोध के काज ।। 37।। मानमुनि या मानकवि (1688 ई.) यह खरतरगच्छीय 'भट्टारक जिनचन्द' की शिष्य परम्परा में वाचक सुमतिसुमेरु के शिष्य थे। यह बीकानेर के निवासी थे। निम्न पंक्तियों में इन्होंने अपरा परिचय दिया है "भट्टारक जिनचंद' गुरु, सब गच्छ के सिरदार । खरतर गच्छ महिमानिलो, सब जन को सुखकार ।।11।। जाको गच्छवासी प्रगट, वाचक 'सुमति सुमेर' । ताको शिष्य 'मुनि मानजी', वासी 'बीकानेर' ।।12।। (कविविनोद, ग्रंथारंभ) 'खरतरगच्छ साखा प्रगट, वाचक सुमति सुमेर' । ताको शिष्य 'मुनि मानजी' कीनी भाषा फेर ॥278।। (वही, द्वितीय खंड) इनकी अन्य रचना 'कविप्रमोद' में इन्होंने अपने को सुमति सुमेरुगणि के भ्राता विनयमेरुगणि का शिष्य लिखा है 'युगप्रधान जिनचंद' प्रभु, जगत मांहि परधान । विद्या चौदह प्रगट भुख, दिशि चारो मधि आंन ।।9।। खरतर गच्छ शिर पर मुकुट, सविता जेम प्रकाश । जाके देखै भविक जन, हरखै मन उल्लास ।।10।। 'सुमतिसुमेर' वाचक प्रकट, पाठक श्री विनैमेर' । ताको शिष्य 'मुनिमानजी', वासी ‘बीकानेर' ।।11।' (कविप्रमोद, ग्रंथारंभ) 'खरतरगच्छ परसिद्ध जगि, वाचक 'सुमतिमेर' । विनयमेर' पाठक प्रगट, कीये दुष्ट जग जेर ।।98।। ताको शिष्य 'मुनि मानजी', भयौ सबनि परसिद्ध । गुरु प्रसाद के वचन ते, भाषा को नव सिद्ध ।।99।। (वही, ग्रंथांत) [ 137 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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