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________________ 'देशं च कालवयसो: ज्वलनस्वभावान्, सात्म्यौषधे च तनुसत्वबले गदं च । सम्यक् विलोक्य तदनंतरमेव वैद्यो, नृणां यथोचितचिकित्साकर्म कुर्यात् ।। 160॥' देशलक्षण (161-164), ऋतुज्ञान (165-184, ऋतु- वर्णन और उपचार), कुचिकित्सक (185), अच्छा चिकित्सक (186), वैद्य का कर्तव्य 187), चिकित्सा का रूप (188) 6 उक्तज्वराणां चिकित्सा पद्धति (189-227) 7. बस्ति कर्माधिकार (228-235) 8. ज्वरों में पाचनादि एवं चिकित्सा (236-3.4) 9. पथ्याधिकार (375-394) 10. सन्निपात प्रकरण (295-442)। इस ग्रथ में कायस्थ चामुण्ड कृत 'ज्वरतिमिर भास्कर' से भी उद्धरण लिये गये हैं (श्लो. सं 57 । ____ वातादिज्वरों के अतिरिक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र भेद से ज्वरों के भेद, अजीर्णज्वर, क्षेत्रज्वर, रक्तज्वर, कामज्वर, खेदज्वर, दृष्टिज्वर, एकांतज्वर, कालज्वर आदि की उत्पत्ति (हेतु), लक्षण और चिकित्सा भी बताई है। परन्तु इनका अन्तर्भाव वातादिदोषों के अन्तर्गत ही स्वीकार किया गया है। यथा --- पित्तज्वर में अजीर्णज्वर, रक्तज्वर, कामज्वर, खेदज्वर, वैश्यज्वर, दृष्टिज्वर का उल्लेख है। ग्रंथ अप्रकाशित है। यह एक महत्वपूर्ण रचना है। जयरत्नगणि ने ज्योतिष' संबंधी प्रश्न लग्न पर 'दोषरत्नावली' ग्रंथ भी लिखा है। लक्ष्मोकुशल (1637 ई.) लक्ष्मीकुशल तपगच्छ की वीरशाखा में पंडित जिनकुशल के शिष्य थे। यह गुजरात के निवासी थे । इन्होंने ग्रन्थ के अंत में अपनी गुरु-शिष्य परम्परा दी है-वीर तपगच्छ में सत्तावनवें पट्टघर साधु सुमतिसूरि हुए । आगे की परम्परा इस प्रकार रहीसुमतिसूरि हेम विमलसूरि-सोभाग्यहर्ष-सोमविमलसूरि-हेमसोमसूरि-विमलसोमसूरि-विशाल सोमसूरि-प. जिनकुशल-लक्ष्मीकुशल | भूलो अक्षर विसमु जेह, सो जानि सवि करज्यो तेह । 'तपगच्छ' मूल लहुढ़ी पोसाल, जाणि जेहनि बालगोपाल ।।49।। वीर पाटि पटोधर घणा, पार न पामु तेह गुणतणा। 'सतावनर्मि' पाटिं सार, श्री 'सुमति साधु सूरि' अणगार ।। 50।। 1 जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 5, पृ. 180 [ 121 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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