SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय-८ उपसंहार संघदासगणि जैन परम्परा के सुविख्यात् आचार्य हैं जिन्होंने भद्रबाहुकृत बृहत्कल्पसूत्र ग्रन्थ पर सुविस्तृत छन्दोबद्ध भाष्य लिखा है जिसमें लगभग साढ़े छः हजार प्राकृत गाथायें हैं। मूलसूत्र के व्याख्यान का जहाँ तक सम्बन्ध है यह भाष्य अद्वितीय है। जैन मुनियों के लिए विहित आचार, नियम एवं असमर्थता के कारण उनके उल्लंघन होने पर उनके प्रायश्चित्त का विस्तार से निरूपण इस ग्रंथ में किया गया है। किसी भी ग्रंथ के सांस्कृतिक अध्ययन में तत्कालीन, भौगोलिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का अध्ययन अपरिहार्य होता है। बृहत्कल्पभाष्य में इन सभी बिन्दुओं पर सविस्तार चर्चा उपलब्ध है जो उसके सांस्कृतिक अध्ययन को पूर्णता प्रदान करते हैं। ___ तत्कालीन भौगोलिक परिस्थितियों के वर्णन में बृहत्कल्पभाष्य प्रायः उदासीन दिखाई देता है। इसीलिए जनपदों के अंतर्गत केवल सुराष्ट्र, अवंति, कुणाल, सिन्धु-सौवीर, शूरसेन और कोशल का, नगरों में मथुरा, उज्जयिनी, आनन्दपुर, भृगुकच्छ, सूर्पारक, ताम्रलिप्ति, पुरिसपुर, तोसलि आदि का, पर्वतों में उज्जयन्त, इन्द्रपद और अबुर्द का और नदियों में गंगा, इरावइ और गोयावरी का ही उल्लेख किया है। तथापि उसने ग्रामों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है और बतलाया है कि ग्राम वे हैं जहाँ १८ प्रकार के कर वसूल किये जाते थे और साथ ही नगर वे हैं जहाँ कोई कर नहीं लगाये जाते। ग्राम व नगर के अतिरिक्त उसने खेट, कर्वट, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, सम्बन्ध, घोष, अंशिका और पुटभेदन आदि ग्राम के प्रकारों को भी परिभाषित किया है। तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों पर इस ग्रन्थ से विपुल प्रकाश पड़ता है। परंपरागत चातुवर्ण्य का यत्र-तत्र उल्लेख मात्र ही है। इसकी जगह आर्य और अनार्य जातियों पर बल दिया गया है और बतलाया गया है कि जैन साधु-साध्वियाँ आर्य देशों में ही भ्रमण करें क्योंकि इन क्षेत्रों में उन्हें आहार, उपाश्रय आदि की
SR No.022680
Book TitleBruhat Kalpsutra Bhashya Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrapratap Sinh
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages146
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy