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________________ ९४ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी कहनेवाला हैं । परन्तु त्रिस्तुतिक का समर्थन करने और चतुर्थस्तुति का खंडन करने के लिए नहीं दिया गया है। इसका भी पूर्व में विस्तार से वर्णन किया ही है। ३. गाथा-२ व गाथा-२६की टीकाके पाठों का परस्पर सम्बंध नहीं है। अर्थात् दोनों का तात्पर्य एक नहीं है। भिन्न-भिन्न है। प्रथम पाठ का तात्पर्य यह है कि, रत्नत्रयी एवं बोलिलाभ स्वरुप फल के कारण के तौर पर अरिहंत परमात्मा, स्थापना अरिहंत एवं आगम, ये तीन स्तुति बताई गई हैं, इनमें स्थापना अरिहंत के आगे भी स्तव-स्तुति करने को उत्तराध्ययन सूत्र के २९ वें अध्ययन में कहा गया है और इसलिए स्थापना अरिहंत-स्थापना निक्षेप भी पूजनीय ही हैं । संक्षिप्त में प्रथम पाठ स्थापना निक्षेपाकी पूज्यनीयता दर्शाने के लिए रखा गया है। त्रिस्तुतिक मतकी मान्यता को सही ठहराने के लिए अथवा त्रिस्तुति प्राचीन है और चतुर्थस्तुति अर्वाचीन है, यह बताने के लिए नहीं। गाथा-२६ की टीका के पाठ का तात्पर्य यह है कि साधुओं को जिनमंदिर में अधिक समय तक रुकनेकी अनुज्ञा नहीं । इसलिए साधु जिनमंदिरमें ज्यादा नहीं रुकते । और इसीलिए अनायतन के पोषक नहीं बनते हैं। इससे उन्हें संवास अनुमोदना का दोष नहीं लगता। इस प्रकार दोनों के बीच परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। ४. लेखक श्रीजयानंदविजयजी शास्त्रपाठों के तात्पर्य को जाने बिना मात्र जहां-जहां 'त्रिस्तुति' 'तिन्निवा' जैसे शब्द प्रयोग हुए हैं। उन्हें उठाकर अपनी मान्यता का समर्थन करने में लग जाते हैं। इस बारे में बृहत्कल्प भाष्यमें एक अल्प जानकारीवाले पंडित की कथा आती है। जो चतुर्थ स्तुति निर्णय भाग-२में देखें। ५. लेखकश्री जयानंदविजयजीने 'सत्यकी खोज' पुस्तक के परिशिष्ट में पृष्ठ-२०८ पर जो चर्चा की है, उसका खंडन पूर्वमें किया ही है। इस प्रकार निश्चित होता है कि, प्रतिमाशतक व उस ग्रंथ के कर्ता
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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