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________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी अठमी थुई सिद्धाण नवमे रे, नवमे रे थुई तित्थाहिव वीरनी रे ॥३॥ दसमे उज्जयंत थुई वलिय इग्यारमे रे, चार आठ दस दोय वंदो रे, वंदो रे श्रीअष्टापद जिन कह्या रे ॥४॥ बारमे सम्यग्दृष्टिसूरनी समरणारे, ए बार अधिकार भावो रे, भावो रे, देववंदना भविजना रे ॥५॥ वांदु छुइच्छकारिसमस श्रावको रे, खमासमण चउदेइ श्रावक रे, श्रावक रे भावक सुजस इस्युं भणे रे।६। तित्थाधिप वीर वंदन रैवत मंडन, श्रीनेमि नति तित्थ सार ॥चतुरनर ॥ अष्टापद नति करी सुयदेवया काउसग्ग नवकार ॥चतुरनर ॥८॥परि.॥ क्षेत्रदेवता काउस्सग्ग इम करो, अवग्रहयाचन हेत॥चतुरनर ॥ पंचमंगल कही पूंजी संडासग, मुहपत्ति वंदन देत॥चतुरनर ॥९॥परि.॥ उपरोक्त पाठ में स्पष्ट रुप से देखने को मिलता है कि, देवसि प्रतिक्रमण के प्रारम्भमें बारह अधिकार सहित चैत्यवंदना करने को कहा गया है। इसमें चौथा कायोत्सर्ग 'वैयावच्चगराणं' का करने तथा उसकी थोय कहने को कहा गया है। तथा दूसरे पाठ में श्रुतदेवता-क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करने को कहा गया है। लेखक मुनिश्री जयानंदविजयजीने "-उपा.श्री यशोविजयजी के समयमें आगमिक गच्छ उपस्थित था फिर भी उत्तराध्ययन सूत्रकी थयथुई शब्दकी व्याख्या 'स्तुतित्रय प्रसिद्धम्' कहकर किया।" इस बात में जो इशारा किया है, वह स्पष्ट नहीं हैं। फिर भी वे ये कहना चाहते हों कि, आगमिक गच्छवाले तीन थोय मानते थे और फिर भी पू.उपाध्यायश्री ने स्तुतित्रय प्रसिद्ध है, ऐसा कथन करके आगमिक गच्छवालों की बात को अंशतः मान्य किया है। अर्थात् 'प्राचीन तो तीन थोय ही हैं, और चतुर्थ थोय तो अर्वाचीन है।' ऐसा पू.उपाध्याय म.श्रीने मान्य किया है।
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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