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________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी पूर्वश्रुत का व्यवच्छेद हुआ। इसके बाद पचपन वर्ष बीतने पर श्रीहरिभद्रसूरिजी स्वर्ग गए। इन श्रीहरिभद्रसूरिजी के ग्रंथकरण काल से पहले भी आचरण होता था । इसलिए श्रुतदेवतादि का कायोत्सर्ग पूर्वधरों के काल में भी संभव था। उपरोक्त शास्त्रपाठ स्पष्टरुप से दर्शाता है कि, क्षेत्रदेवता एवं आदि पद से वैचावच्चकारी देवताओं का कायोत्सर्ग पूर्वधर परमर्षियों के काल से चलता आ रहा था । ८७ पूर्वधर परमर्षियों के सत्ताकाल के अत्यंत निकट ही पू. आ.भ. श्री हरिभद्रसूरिजी हुए थे । इसलिए उन्हें जो श्रुतविरासत एवं स्तुति परम्पराएं (आचरण) मिली होंगी, वे पूर्वधरों के काल से चली आ रही ही मिली होंगी, यह सहज ही समझा जा सकता हैं। पू. आ. भ. श्रीने ललितविस्तरा ग्रंथमें वैयावच्चकारी देवी- देवता के कायोत्सर्ग करने व उनकी स्तुति करने की स्पष्ट कही है। इसलिए पूर्वधरों के काल से देव-देवी के कायोत्सर्ग व उनकी थोय कहने की प्रवृति चल रही होगी, यह कहने में कोई दोष नहीं । पू.महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराजा कृत प्रतिक्रमणादि हेतु गर्भित विधि निम्नानुसार है, जिसमें स्पष्ट देखने को मिलता है कि, देवसि प्रतिक्रमण करते समय प्रथम बार अधिकार सहित चैत्यवंदना करने को कहा गया है। इसमें चौथा कायोत्सर्ग 'वैयावच्चगराणं' का करने व उसकी थोय कहने को भी कहा गया है। तथा दूसरे पाठ में श्रुतदेवता - क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग करने को कहा गया है, यह पाठ इस प्रकार है । 'पढम अहिगारे वंदु, भावजिणेसरु रे । बीजे द्रव्यजिणंद त्रीजे रे, बीजे रे इग चेइय ठवणा जिणे रे ॥१॥ चौथे नाम जिन तिहुयण ठवणा जिन नमुं रे । पंचमे छतिम वंदुरे, वंदु रे विहरमान जिन केवली रे ॥२॥ सत्तम अधिकारे सुय नाणं वंदिये रे,
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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