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________________ २८ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी परिप्रेक्ष्य में पेश किए गए हैं। इसी प्रकार पं.श्री चंद्रशेखरविजयजी म.सा. आदि के प्रवचन, पुस्तकें व मासिकों के अंश भी मुनिश्री जयानंदविजयजी ने गलत तरीके से प्रस्तुत करके लोगों को भ्रम में डालने का दुष्कृत्य किया है। इसलिए निस्सकड० कल्पभाष्यकी गाथासे भी त्रिस्तुतिक मत की सिद्धि नहीं होती। __ प्रश्नः मुनिश्री जयानंदविजयजी आदि ‘पंचाशकवृत्ति' में चतुर्थस्तुतिको अर्वाचीन कहा है व त्रिस्तुति को प्राचीन कहा है, ऐसा वे जो प्रचार करते हैं। उनकी यह बात सच्ची हैं? उत्तर : त्रिस्तुतिक मतवाले पंचाशकवृत्ति के पाठ को अपने मतकी पुष्टि के लिए खूब प्रचार करते हैं । परन्तु उनकी बात शास्त्रविरोधी है। क्योंकि पंचाशकवृत्ति के पाठ से तो चार स्तुति का ही समर्थन होता है, यह अब देखें। तथा च तत्पाठः। नवकारेण जहन्ना, दंडग थुइ जुअल मज्झिमाणेआ। संपुण्णा उक्कोसा, विहिणा खलुवंदणा तिविहा ॥१॥ व्याख्या ॥ नमस्कारेण 'सिद्ध मरुय मणिंदिय, मक्किय मणवज्जं मच्चुयं वीरं । पणमामि सयलतिहुयण, मत्थयचूडामणिं सिरसा' इत्यादि पाठपूर्वक नमस्क्रियालक्षणेन करणभूतेन क्रियमाणा जघन्या । स्वल्पा पाठक्रिययोरल्पत्वावंदना भवतीति गम्यं । उत्कृष्टादि त्रिभेदमित्युक्त्वापि जघन्यायाः प्रथममभिधानं तदादिशब्दस्य प्रकारार्थत्वान्न दुष्टं, तथा दंडकश्चारिहंतचेइयाणमित्यादिस्तुतिश्च प्रतीता तयोर्युगलं युग्ममेते एव वा युगलं दंडकस्तुतियुगलमिह प्राकृतत्वेन प्रथमैकवचनस्य तृतीयैकवचनस्य वा लोपो द्रष्टव्यः मध्यमाद्धन्योत्कृष्टा पाठक्रिययोस्तथाविधत्वादेतच्च व्याख्यानमिमां कल्पभाष्यगाथा- मुपजीव्य कुर्वति । तद्यथा
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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