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________________ १६ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी संपुन्नं वा वंदइ कड्डइ वा तिन्नि उ थुईओ ॥८२५॥ एसो वि हु भावत्थो, संभाविज्जइ इमस्स सुत्तस्स । · ता अन्नत्थं सुत्तं, अन्नत्थं न जोइउं जुत्तं ॥८२६॥" भावार्थ : स्थूलमतिवाला कोई नीचे (अब कहा जाएगा वह) सूत्र को याद करके कहता है कि, सूत्रमें एक ही प्रकार का चैत्यवंदन कहा गया है। इसलिए (उसके) भेद कहना योग्य नहीं। (८२२) साधुओं को मुख्यतया श्रुतस्तव के बाद तीन श्लोक प्रमाण स्तुतियां कही जाए तब तक जिनमंदिर में रहने की अनुज्ञा है। कारण हो तो उससे अधिक समय तक भी रहने की अनुज्ञा है। (८२३) गुरु कहते हैं कि, यह सूत्र निष्कारण जिनमंदिर में रहने का निषेध करनेवाला होने से चैत्यवंदन की विधि का प्ररुपक नहीं। (८२४) अथवा इस सूत्रमें अन्य पक्ष का (=विकल्पका) सूचक 'वा' शब्द स्पष्टतया है ही। इसीलिए उस सूत्र का यह अर्थ होता है कि, सम्पूर्ण चैत्यवंदना करे अथवा तीन स्तुतियां करे। इस सूत्र का यह भी भावार्थ संभवित है। इसलिए अन्य अर्थवाले सूत्र को अन्य अर्थ में जोड़ना योग्य नहीं . (८२२-८२६) आगे कहते हैं कि, जइ एत्तियमेत्तं चिय, जिणवंदणमणुमयं सुए हुत्तं । थुइ-थोत्ताइपवित्ती, निरस्थिया होज्ज सव्वाऽवि ॥८२७॥ संविग्गा विहिरसिया गीयत्थतमा य सुरिणा पुरिसा। कहं ते सुत्तविरुद्ध सामायारी परुर्वेति ॥८२८॥ भावार्थ : यदि सूत्र में इतना ही चैत्यवंदन अनुमत हो, तो स्तुति स्तोत्रादि सम्बंधी समस्त प्रवृत्तियां निरर्थक हो जाएं। संविग्न, विधिरसिक तथा सर्वोत्कृष्ट गीतार्थ आचार्य भगवंत सूत्र विरुद्ध सामाचारी की प्ररुपणा कैसे करे? उपरोक्त चर्चाका सार यह है कि,
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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