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________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी यावत्कथ्यन्ते - प्रतिक्रमणानन्तरमंगलार्थं स्तुतित्रयपाठवत् - तावच्चैत्यगृहे ( स्थानं ) साधुनामनुज्ञातं निष्कारणं न परतः॥" भावार्थ : (उपरोक्त दोनों गाथा का भावार्थ इस प्रकार है।) साधु चैत्यगृह में रुकते नहीं । अथवा प्रतिक्रमण के अंत में मंगल के निमित्त 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' तथा 'विशाललोचन०' की तरह चैत्यवंदना के अंत में शक्रस्तवादिके अनंतर प्रणिधानार्थ तीन श्लोक प्रमाण तीन स्तुति कही जाएं, तब तक मंदिरमें रुकना मान्य रखा है, इसके बाद निष्कारण ज्यादा नहीं रुकना चाहिए। इस प्रकार 'तिन्निवा' गाथा, चैत्यवंदना में तीन थोय कहना नहीं दर्शाती है। बल्कि वह 'तिन्निवा' गाथा, चैत्यवंदनकी विधिकी भी प्रतिपादक नहीं है। प्रश्न : 'तिनिवा' गाथा, चैत्यवंदना की विधि की प्रतिपादक नहीं; ऐसा आप किस आधार पर कहते हैं ? उत्तर : 'तिन्निवा' गाथा, चैत्यवंदना की विधि की प्रतिपादक नहीं है। क्योंकि, वादीवेताल पू.आ.भ.श्री शांतिसूरीश्वरजी महाराजाने चैत्यवंदन महाभाष्य में स्पष्टता की है कि, 'तिन्निवा' गाथा, चैत्यवंदन की विधि की प्रतिपादक नहीं है। इसके लिए गाथा ८२२ से ८२६ तक चर्चा की है। (यह निम्नानुसार) हैं। "सुत्ते एगविह च्चिय, भणिया तो भेयसाहणमजुत्तं । इय थुलमई कोइ जंपइ सुत्तं इमं सरिउं ॥८२२॥ तिन्नि वा कड्ई जाव थुईओ तिसिलोइया । ताव तत्थ अणुन्नायं, कारणेण परेण वि ॥८२३॥ भणइ गुरु तं सुत्तं चिइवंदणविहिपरुवगं न भवे । निकारणजिणमंदिरपरिभोग निवारगत्तेण ॥८२४॥ जं वा-सद्दो पयडो पक्खंतरसूयगो तहिं अस्थि ।
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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