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________________ १८८ श्रीमद्वाग्भटविरचित नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन जो शुद्धोपयोग है वह भाव संवर है और भाव कर्म के आधार से नवीन पुद्गल कर्मों का विरोध होना द्रव्य संवर है । यह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र से होता है। संसार भ्रमण के कारण स्वरूप मन, वचन और काय इन तीन योगों के निग्रह करने को गुप्ति कहते हैं । प्राणियों को कष्ट न पहुँचे । इस भावना से यलाचार पूर्वक प्रवृत्ति करना समिति है । जो आत्मा को संसार के दुःखों से छुटाकर उसके इष्ट स्थान में धरता है वह धर्म है । संसार शरीर आदि का स्वरूप बार-बार चिन्तवन करना सो अनुप्रेक्षा है । भूख-प्यास आदि का कष्ट होने पर कर्मों की निर्जरा के लिये शान्त भावों से सहन करने को परिषहजय कहते हैं । रागद्वेष को सहन करने के लिये ज्ञानी पुरुष की चर्या को चारित्र कहते हैं। (६) निर्जरा : कर्मों के फलों का भोगपूर्वक नाश हो जाना निर्जरा कहलाती है निर्जरा के होने पर यह आत्मा दर्पण की तरह निर्मल हो जाता है । तप-विशेष से संचित कर्मों का क्रमशः अंशरूप से झड़ जाना निर्जरा है । जिस प्रकार मन्त्र या औषधि आदि से निःशक्ति किया हुआ विष दोष उत्पन्न नहीं करता, उसी प्रकार तप आदि से नीरस किये गये कर्म संसार चक्र को नहीं चला सकते । (७) मोक्ष : नेमिनिर्वाण में कहा गया है कि अनेक जन्मों से बन्धे हुये सभी कर्मों के छूट जाने से आत्मा की एक स्थिति होने को, मोक्ष कहा जाता है । तत्त्वार्थ-सूत्र आदि ग्रन्थों में भी इसी प्रकार का स्वरूप दिया गया है । सम्यग्दर्शनादि कारणों से सम्पूर्ण कर्मों का आत्यन्तिक मूलोच्छेद होना मोक्ष है । जिस प्रकार बन्धन युक्त प्राणी स्वतंत्र होकर यथेच्छ गमन करता है उसी तरह कर्म बन्धनमुक्त आत्मा स्वाधीन हो अपने अनन्त ज्ञान दर्शन सुख आदि का अनुभव करता है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन बन्ध के कारणों के अभाव में नये कर्मों का अभाव तथा पूर्व कर्मों के झड़ जाने से समस्त कर्मों का अत्यन्त अभाव हो जाना मोक्ष है । अर्थात् मिथ्या दर्शनादि कारणों का अभाव हो जाने से नये कर्मों का बन्ध होना रुक जाता है और तप इत्यादि के द्वारा पहले बन्धे हुये कर्मों की निर्जरा हो जाती है । अतः आत्मा सर्व कर्म बन्धनों से छूट जाता है । इसी का नाम मोक्ष है। १. तत्त्वार्थ सूत्र ९/४ २. कर्मणां फूलभोगेन संक्षयो निर्जरा मता । भूत्यादर्श इवात्मायं तया स्वच्छत्वमृच्छति । । नेमिनिर्वाण १५/७४ ३. अनेकजन्मबद्धानां सर्वेषामपि कर्मणाम् । विप्रमोक्षः स्मृतो मोक्ष आत्मनः केवलस्थिते । । नेमिनिर्वाण १५/७६ ४. बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां-कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । तत्त्वार्थसत्र १०/२
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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