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________________ नेमिनिर्वाण : दर्शन एवं संस्कृति - दर्शन १८७ 1 पुण्य और पाप रूप कर्मों के आगमन के द्वार को आस्रव कहते हैं । जैसे नदियों द्वारा समुद्र प्रतिदिन जल से भरा जाता है वैसे ही मिथ्यादर्शनादि स्रोतों से आत्मा में कर्म आते रहते हैं । अतः मिथ्या दर्शनादि आनव हैं । तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं और वही आश्रव है। वास्तव में आत्मा के प्रदेशों में जो हलन चलन होती है उसका नाम योग है वह योग (परिस्पंदन) या तो शरीर के निमित्त से होता है या वचन निमित्त से होता है अथवा मन के निमित्त से होता है । अतः निमित्त के भेद से योग के तीन भेद हो जाते हैं - काय योग, वचन योग और मनोयोग । वह योग ही आसव है। आस्रव को द्वार की उपमा दी गई है। जिस प्रकार नाले आदि के मुख द्वारा सरोवर में पानी आता है उसी प्रकार योग द्वारा ही कर्म और नौ-कर्म वर्गणाओं का ग्रहण हो कर उनका आत्मा से संबंध होता है । इसलिए योग को आस्रव कहा है । I (४) बन्ध : नेमिनिर्वाण में कहा गया है कि कर्मों और आत्मा का सम्बन्ध बन्ध कहलाता है । शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का होता है । २ नयचक्र में कहा गया है कि आत्मा और कर्म प्रदेशों का आपस में सम्बन्ध होना बन्ध कहलाता है । राजवार्तिक में कहा गया है कि जो बँधे या जिसके द्वारा बाँधा जाये या बन्धन मात्र को ही बन्ध कहते हैं । मिथ्यादर्शनादि द्वारों से आये हुए कर्म पुद्गलों का आत्म प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह हो जाना बँध है । जैसे बेड़ी आदि से बँधा प्राणी परतन्त्र हो जाता है और इच्छानुसार देशादि में नहीं जा सकता उसी प्रकार कर्मबद्ध आत्मा परतन्त्र होकर अपना इष्ट विकास नहीं कर सकता है । अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों से दुःखी होता है । (५) संवर : निर्वाण में कहा गया है कि उत्पन्न हुये अनाबद्ध कर्मों का रुक जाना संवर कहलाता है ।" तत्त्वार्थ सूत्र तत्त्वार्थसार में संवर का यही कथन किया है आत्मा में जिन कारणों से कर्मों का आश्रव होता है, उन कारणों को दूर करने से कर्मों का आगमन रुक जाता है उसे संवर कहते हैं । इसके दो भेद हैं- भाव संवर और द्रव्य संवर । शुभाशुभ भावों को रोकने में समर्थ I १. काय वाङ् मनः कर्म योगः । स आस्रवः । तत्त्वार्थसूत्र ६ / १-२ २. दृढं परिचयस्थैर्यं कर्मणामात्मनश्च यत् । शुभानामशुभानां वा बन्धः स इह बुध्यताम् । । नेमिनिर्वाण १५/७३ ३. कम्मादपदेसाणं अणणोण्णपवेसणं कसायादो । नयचक्र १५३ ४. बध्नति, बध्यतेऽसौ बध्यतेऽनेन बन्धनमात्रं वा बन्धः । राजचार्तिक ५/२४ ५. उत्पन्नानामनाबद्धकर्मणामेव संवृतः । क्रियते या स्मरादीनां संवरः सः उदाहृतः । । - नेमिनिर्वाण १५/७२ ६. तत्त्वार्थ सूत्र ९ / १ ७. तत्त्वार्थसार ६ / २
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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