SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र पूर्वभव वृत्तान्त मर जाना बेहतर है। हमसे जितना बन सका उतना दान पुण्य कर लिया है, अब देह का त्याग करना ठीक है । इस प्रकार प्राण त्याग का निश्चयकर एक मन वाली होकर किसी को मालूम न हो इस तरह दोनों ने किसी एक कुएँ में पड़कर आपघात कर लिया । रुद्रा मरकर जयपुर नगर में चंद्रपाल राजा के घर पुत्री रूप में पैदा हुई । उसका कनकवती नाम रक्खा गया जिसका विवाह सन्मुख बैठे हुए इस चंद्रावती नरेश वीरधवल के साथ हुआ है। प्रियमित्र की भद्रा नामकी दूसरी स्त्री मरकर परिणाम की विचित्रता से व्यन्तर जाति की देवयोनि में व्यन्तरी पैदा हुई। एक दिन वह व्यन्तरी आकाश मार्ग से पृथ्वीस्थानपुर के ऊपर होकर जा रही थी उस समय उसने प्रियमित्र और प्रियसुन्दरी को देखा, देखते ही अपने पूर्वभव की स्मृति आने से उसके हृदय में उन दोनों के प्रति वैरभाव जाग उठा । अतः जहाँ पर वे घर में शान्ति से सो रहे थे, वहाँ जाकर व्यन्तरी ने अपनी दैवी शक्ति से उन पर दीवार को गिरा दिया और फिर वह वहाँ से आगे चली गयी । वे स्त्री पुरुष शुभ भाव में मृत्यु प्राप्तकर प्रियमित्र का जीव राजन् ! आपके घर में महाबल पुत्र पैदा हुआ है और प्रिय सुन्दरी का जीव वहाँ से मरकर वीरधवल राजा की पुत्री मलयासुन्दरी नाम से पैदा हुई है । पूर्वभव के प्रबल प्रेम के कारण इनका इस भव में भी पति -पत्नी का सम्बन्ध कायम रहा। राजन् ! महाबल और मलयासुन्दरी ने पूर्वभव में रुद्रा और भद्रा के साथ जो तीव्र वैर पैदा किया था उस वैर को याद करती हुई व्यन्तरी ने फिर इस जन्म में भी महाबल को मारने का प्रयत्न किया था, किन्तु इसके पुण्य की प्रबलता से जब वह इसे मारने में सफल मनोरथ न हो सकी तब रात्रि के समय अपने महल में सोते हुए को उपद्रव करने लगी । जो चुराये गये वस्त्र और कुण्डलादि चंद्रावती नगरी के समीप वटवृक्ष की खोखर में से राजकुमार को मिले थे वे सब उस व्यन्तरी के ही हरण किये हुए थे। कुमारी मलयासुन्दरी ने महाबल के प्रथम समागम के समय अपने हृदय के समान प्रिय जो उसे लक्ष्मीपुंज हार समर्पण किया था उस हार को भी कुमार के सो जाने पर उसके पास से व्यन्तरी ने ही हरण 221
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy