SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र दुःखों का अन्त रखवाई थी। चिता में प्रवेश किये बाद जब वह सुलगायी गयी थी तब मैं सुरंग द्वार की शिला दूरकर उसके अन्दर चला गया और अन्दर से फिर मैंने द्वार बंद कर लिया । जब चिता जलकर ठंडी हो गयी तब पिछली रात में मैं धीरे - धीरे द्वार के पास आया और उसे खोलकर बाहर निकला उस समय वहाँ पर कोई भी मनुष्य न था। इसलिए राख की गठरी बाँध और शेषरात पूरीकर प्रातःकाल होते ही मैं यहाँ आ गया । इस प्रकार परस्पर जब वे बातें कर रहे थे तब राजा उनके पास आकर बोला - अरे भाई! सिद्धराज ! इस बेचारी को कुछ भोजन कराओ । इसने कल से बिल्कुल अन्न जल नहीं लियां सिद्धराज ने उसे भोजन कराया और फिर राजा से कहा...... महाराज ! मैंने आपका कार्य कर दिया है अब आप अपना वचन पालन कीजिए और अपनी स्त्री के साथ मुझे अपने देश जाने की आज्ञा दीजिए। यह सुन राजा घबराया, उसे कुछ भी उत्तर देते न बना । वह मलयासुन्दरी को कदापि महाबल को देना न चाहता था परन्तु इस समय एकाएक वह साफ इन्कार भी न कर सकता था । इसलिए उसने अपने पास रहे हुए प्रधान मंत्री जीवा के सन्मुख देख सहज में इशारा किया । मंत्री ने कुछ देर विचार कर राजा की इच्छानुसार महाबल से कहा सिद्धराज ! आपने राजा का यह काम कर हम पर बड़ा उपकार किया है। आपके धैर्य और परोपकार की भावना को हम धन्यवाद देते है । परन्तु सिर्फ एक कार्य आप राजा का और कर दें और फिर इच्छानुसार अपने देश को चले जाइए। इस शहर के पास जो छिन्न टंक नामक पहाड़ है उसमें एक विषम शिखर के पिछले हिस्से में निरंतर फल देनेवाला एक आम्रवृक्ष है । पूर्व दिशा की ओर से उस शिखर की चोटी पर चढ़ा जा सकता है । क्योंकि अन्य किसी तरफ से इतने ऊंचे चढ़ने का कोई मार्ग नहीं है । उस शिखर की चोटी से नीचे की तरफ उस विषम खीण में वह आम्रवृक्ष दीखता है । उसे लक्ष्य कर वहाँ से कूदना और आम्र के पके फल लेकर फिर उस विषम मार्ग से वापिस आकर वे फल राजा को देना । सत्पुरुष ! यह काम यद्यपि बड़ा कठिन है तथापि तुम्हारे जैसे साहसी 184
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy