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________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र दुःख में वियोगी मिलन कुछ देर पानी पर स्थित रहकर वह समुद्र तट की ओर ऐसा चला जैसे कोई शीघ्र वेगवाली किस्ती दौड़ती है । मच्छ की यह प्रवृत्ति देख देख विस्मय के साथ मलयासुंदरी विचारने लगी - 'यह मत्स्य मुझे इस तरह कहां ले जायगा? सचमुच ही किसी हितैषी मनुष्य के समान यह मच्छ बार बार मेरे सन्मुख देखता है । यह अज्ञानजलचर प्राणी भी मुझ पर कितना उपकार करता है । इस प्रकार विचार करती हुई मच्छ पर मलयासुंदरी किनारे की तरफ आने लगी । थोड़े ही समय में शीघ्रगामी किस्ती के समान वह सागर तिलक नामक नगर के बंदरगाह के पास आ पहुंची । - मलयासुंदरी का शरीर अनेक वर्णों से परिपूर्ण था । इस समय वेदना, क्षुधा, तृषा और परिश्रम से उसका शरीर बिल्कुल अशक्त हो गया था । उसमें उठकर चलने और अच्छी तरह बात करने की भी ताकात न रह गयी थी । मच्छ के वापिस लौट जाने पर कंदर्प राजा अपने साथियों सहित मलयासुंदरी के पास आया । अशक्त शरीर होने पर भी मलयासुंदरी की लावण्यता सर्वथा नष्ट न हो गयी थी । अतः उसके सन्मुख देख राजा अपने साथियों से बोला- यह तो कोई बड़ी सुंदर युवती है । घने काले भीगे हुए बालों की चोटी बड़ की जटा के समान पीठ पर से होकर नीचे तक लटक रही है। शीरे के समान साफ और चमकता हुआ ललाट मानो नौकरों को मालिक के समान आज्ञा दे रहा है । इसकी बड़ी - बड़ी आंखें संध्या समय के कमल दलों के समान मुंदी हुई हैं। कौन कह सकता है कि इनके अंदर कैसी दृष्टि छिपी हुई है ? उठी हुई लंबी नाक के नीचे होठों में राजसी दर्प से युक्त हास्य छिपा हुआ है । उसके नीचे ठोड़ी मानों सुधापात्र के समान उस विगलित हास्य को ग्रहण करने के लिए तैयार है। ऊंची और टेढ़ी गर्दन से इस समय भी अभिमान प्रकट हो रहा है । सिकुड़े हुए गीले कपड़ों के नीचे इसका यह गोरा बदन उसी प्रकार शोभ रहा है जैसे पतले बादलों से घिरा हुआ आकाश में चंद्रमा । ऐसी दुर्दशा में भी इस सुंदरी का तेजवान् एवं सौम्य मुखमंडल कितना सुंदर और लुभावना है! परंतु इस मस्त्य का इसके साथ क्या संबंध? इस तरह प्रयत्नपूर्वक वह जलचर प्राणी इसे समुद्र के किनारे क्यों छोड़ I 165
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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