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________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र निर्वासित जीवन हो गयी । उस महासती ने प्राणांत कष्ट आने पर भी सदाचार से विचलित न होने के लिए अपने मन को खूब दृढ़ बना लिया। परंतु पुत्र मोह से प्रेरित हो जैसे गाय अपने बछड़े के पीछे चली जाती है वैसे ही पुत्र को वापिस लेने के लिए दीनता भरे वचन बोलती हुई वह सार्थवाह के पीछे – पीछे चली गयी। मलयासुंदरी को अपने पीछे आती देख सार्थवाह को बड़ी खुशी हुई । तंबू में जाने पर मलयासुंदरी ने अपने बच्चे को वापिस लेने के लिए बहुत ही दीनता प्रकट की, परंतु बलसार ने न तो उसे उसका पुत्र ही दिया और न ही उसे यहां से वापिस जाने दिया । पुत्र को पैदा हुए अभी आठ ही दिन हुए थे इसलिए स्तनपान न मिलने के कारण उसके मृत्यु की शंका से मलयासुंदरी ने भी पुत्र को छोड़ वापिस जाना उचित न समझा । पुत्र की रक्षा के लिए इच्छा न होने पर भी वह बलसार के पटावास में रह गयी । बलसार ने किसी को मालूम न हो इस तरह उसके रहने का प्रबंध कर दिया और उसका दिल जानने के लिए उसके पास एक दासी भी नियुक्त कर दी । उसे विश्वास दिलाने के लिए सार्थवाह उचित वचनों से संबोधित करने लगा। अब वह अपने सार्थ के साथ मलयासुंदरी को लेकर अपने सागरतिलक नामक शहर में आ पहुंचा। वहां आकर उसने एक गुप्त मकान में मलयासुंदरी के रहने का प्रबंध किया । एक दिन बलसार मलयासुंदरी के पास आकर नम्र शब्दों में बोला – सुंदरी! तुम्हारा नाम तो बतलाओ । मलयासुंदरी ने मंदस्वर में उत्तर दिया मेरा नाम मलयासुंदरी है । यह नाम सुनकर करके उच्च खानदान के विषय में जो उसका अनुमान था वह और भी दृढ़ हो गया । वह बोला - सुंदरी! तुम मुझे अपना स्वामी स्वीकार करो तो मैं सदा के लिए तुम्हारा सेवक बनकर रहूंगा और मेरी इस अतुल संपत्ति का मालिक तुम और यह तुम्हारा पुत्र ही होगा; क्योंकि मेरे कोई संतान नहीं है । मलयासुंदरी - सार्थवाह! आप भी बड़े उच्च कुलीन मालूम होते हैं, इसीलिए आप विचार करें कि पर स्त्री गमन करना संसार में महान् पाप माना है। उसमें भी सती स्त्री के सतीत्व पर हाथ डालना यह और भी अधिक घोर पाप गिना जाता है । आप जैसे कुलीन पुरुषों के लिए यह काम सर्वथा अनुचित है। तथापि मेरे सर्वस्व का नाश हो और शरीर के टुकड़े टुकड़े हो जाने पर भी चंद्रमा 160
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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