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________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र निर्वासित जीवन घर बसाया चैन को, जाना न था अंजाम । आग से वह जल गया, बस मैं रही ना काम ॥१॥ अमृत सागर में गयी, गोता लगाया जाय । विष हुआ तकदीर से, मेरे लिये वह हाय ॥२॥ छोड़ नीचे को चढी, ऊंचे बढ़ाकर पांव । अगम पानी में गिरी, कोई चला नहीं दाय ॥३॥ चाह प्रिय सुख की मुझे थी, नाथ जी के साथ । प्राप्त कर वह रत्न खो, आयी गरीबी हाथ ॥४॥ प्यास की मारी गयी मैं, मेह के जो पास । गिर पडी बिजली, न पूरी, हुई मेरी आस ॥५॥ चारों तरफ सन्नाटा देख अब वह कुछ जागृत सी हुई । उसने रोने धोने से अपनी आंखें सुजा ली थी; परंतु रुदन और चिंता का कुछ भी अच्छा परिणाम न देख उसने स्वयं अपने आपको ढाडस दिया । संध्या के समय विलाप और चिंता के कारण उसके गर्भपूर्ण उदर में पीड़ा होने लगी। कुछ दर वेदना सहकर जिस तरह प्रातःकाल में पूर्व दिशा तेजस्वी सूर्य बिम्ब को पैदा करती है वैसे ही मलयासुंदरी ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। जिस राजरमणी के पास अनेक दास दासी हाजर रहते थे । जिसका प्रसूतीकार्य गगनचुंबी राजमहलों में प्रसूति करानेवाली कुशल स्त्रियों की देख - देख में होना था और जिसे ऐसे प्रसंग में अनेक प्रकार की सुविधाओं की आवश्यकता थी, वही राजरमणी भाग्य चक्र में पड़कर निर्वासित हो आज एक भिखारन के समान जंगली पशुओं की स्थिति में रहकर पुत्र को जन्म देती है। 157
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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