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________________ -१६८ श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी । रोज मैंने निर्माण-संग्रह किया है और म मानता हूं कि यह 'राजेन्द्रगुणमंजरी' बावन जिनालयोंके अधिपतित्व से सुशोभित श्रीगोड़ीपार्श्वनाथजी की अनुकम्पा के योगसे शीघ्र ही संपूर्णता को प्राप्त हुई ।। ६४० - ६४३ ।। नैवास्यां पद्यलालित्यं, नाऽलङ्कारचमत्कृतिः । नैवोपमौपमेयोsपि, नैव चास्त्यर्थगौरवम् ॥ ६४४ ॥ स्वल्पमत्या कृता चेय- माहोरेऽस्मिन् पुरे वरे । हर्षेण गुरुभक्त्यर्थं, गुलाबविजयेन वै ॥ ६४५ ॥ उत्तमानां चरित्रेण, स्वश्रेयोऽर्थेऽखिलैर्जनैः । तन्मर्यादा सदा धार्यै तदर्थं हि चरित्रकम् ।। ६४६ ।। ये गायन्ति गुरोः कीर्ति, कीर्तिभाजो भवन्ति ते । परत्रेह मनोऽभीष्टां, लभन्ते सर्वसम्पदः ॥ ६४७ ॥ ये श्रोष्यन्ति पठिष्यन्ति, सुभक्त्येमां च सद्गुरोः । यथैवेह लताभिर्दुः, सुश्लिष्टास्ते सदार्द्धभिः ॥ ६४८ ॥ इसमें पदोंका अति सुन्दरपन नहीं, अनोखे २ अलङ्का-रोंका चमत्कार नहीं, उपमा औपमेय नहीं, और अर्थकी गहनता भी नहीं है । किन्तु हर्ष युक्त केवल गुरुभक्ति के लिये अल्पबुद्धि 'गुलाबविजय ' नामक शिष्यने मरुधर देशान्तर्गत श्रेष्ठ शहर श्रीआहोर में यह 'राजेन्द्रगुणमञ्जरी' बनाई। सत्पुरुषोंके चरित्र द्वारा सभी साधारण लोगों को अपने आत्मकल्याणके वास्ते हमेशा उन उत्तम पुरुषोंकी मर्यादा धारण करना
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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