SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। करना वह वारणा, इन दोनोंके ठीक आचरण नहीं होने पर अति प्रमादी शिष्यको धर्मपन्थ पर चलाने के लिये जाति कुलोदाहरण पूर्वक सोपालंभ प्रेरणा करना वह चोदना और पूर्वोक्त उन दोनों बातोंमें बारम्बार भूल करने पर तुझे और तेरे सुकुल सुजन्म आदिको धिक्कार है इत्यादि कटुक वाक्योंसे अतीव वारंवार प्रेरणा करना वह प्रतिचोदना कहलाती है ॥ ५६१ ॥ मैंने इन चार सुशिक्षाओंके जरिये अथवा अनुपयोगसे यदि तुम लोगोंकी आत्मा दुखाई हो तो उस मेरे अपराध को तुम सभी क्षमना ।। ५६२ ।। फिर इसी त्यक्त्वौषधोपचाराणि, कृत्वैवं क्षामणां समैः । सच्छरणानि चत्वारि, गृहीत्वैवोचितान्यसौ ॥५६३॥ दत्त्वा संयमदोषाणां, मिथ्यादुष्कृतमादरात् । जग्राहाऽनशनं जैना-गमरीत्या समाधिना ॥५६४॥ लोकेऽन्वाचार्यवॉय-मुपकारी महासुधीः । सुखेनानशने स्थित्वा, कियदिनानि सुव्रती ॥५६५॥ स्वच्छकीर्ति सुविस्तीर्य, ज्ञानध्यानादिसंयमैः । चात्र स्वान्तेऽखिले जीवे, समभावं सुधारयन् ॥५६६॥ विनष्टं शर्मदं देह, स्वर्गकैवल्यसाधकम् । तथा त्यक्त्वेह निर्मोकं, सुखेनाहिस्त्यजेद्यथा॥५६७॥ गुणेषड्रत्नभूवर्षे, सप्तम्यां शुचिपौषके । श्रीमद्विजयराजेन्द्र-सूरीशोऽयमगादिवम् ।। ५६८ ॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy