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________________ १३९ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। और विनयको देनेवाले, मोहको जितानेवाले, असंख्य अनन्त जीवोंको तारनेवाले, उत्तम पुरुषोंके आचारको शिखानेवाले, प्राणियोंकी नरक तिर्यंचादि जो कुगति उसको निवारण करानेवाले, सम्यक्त्व रूप बीज पैदा होनेके कारण और मोक्षरूप राज्य को दिलानेवाले, हे स्वामिन् ! आप सद्गुरुके सिवाय इस प्रकार का धर्मोपदेश अब हमको कौन देगा ? ॥ ५३७-५३९ ।। जैसे संसारमें सूर्यके सिवाय अन्धकारका समूह दूर नहीं होता, वैसेही गुरुके विना प्राणियोंका अज्ञान रूप तिमिरका भी विनाश नहीं होता ।। ५४० ॥ जिस प्रकार चन्द्रमा के विना गगनमण्डल, दीपकके विना मन्दिर, सेनापतिके विना लश्कर, शोभा नहीं पाता, उसी प्रकार गुरुदेव! आपके विना हम शोभित नहीं होते ।। ५४१ ।। निर्भीकाः किल निःशङ्का-स्तथा कुमतिदस्यवः। बलवन्तो भविष्यन्ति, कौतीर्थिकनिशाटनाः।।५४२॥ गुरो ! कस्संघसन्देहान् , प्रतिवाक्यैर्हरिष्यति । श्रुत्वैवं संघविज्ञप्ति, गुरुस्संघमवोचत ॥५४३ ।। श्रीसंघ ! भवता नैव, चिन्ता कार्या हि मत्तनोः। एष धर्मः शरीरस्य, क्षीणपुष्ट्यादिकात्मकः ॥ ५४४ ॥ अशुचिस्थानमस्त्येतद्, वहन्त्यस्मिन् प्रणालवत् । नव द्वाराणि नित्यं वै, प्राप्ते कालेऽस्ति गत्वरम् ॥५४५।।
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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