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________________ १३८ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । ॥ ५३४ | और वे प्रतिदिन जोरशोर से स्वराज्य करने लगे, तथापि गुरुदेव ने इस प्रकारकी अवस्थामें भी अपने कर्तव्यको नहीं छोड़ा अतः संसारमें वे धन्यवाद के पात्र हैं ।। ५३५ ।। ४५-- श्रीसंघचिन्तोत्पत्तौ गुरूपदेशः - गुर्ववस्थां विलोक्यैवं, श्रीसंघोऽथ चतुर्विधः । कर्तुं लग्नो महाचिन्तां धर्मतत्त्वसमन्विताम् ||५३६|| कर्णयोश्च सुधातुल्यं, सन्नीतिरीतिदर्शकम् । शुभशिक्षागृहं सत्यं, विवेकविनयप्रदम् ॥। ५३७ ॥ मोहजापयितारं च प्रभूतप्राणितारकम् । सदाचारं च नेतारं, प्राणिदुर्गतिवारकम् ॥ ५३८ ॥ बोधिबीज निदानं च, शिवराज्याधिकारिणम् । को नः प्रदास्यते स्वामिनीदृग् धर्मोपदेशकम् ॥५३९ ।। यथा सूर्य विना लोके, तमःस्तोमो न नश्यति । जीवाज्ञानान्धकारोऽपि, नो नश्यति गुरुं विना ॥५४०|| यथाssकाशो विना चन्द्रं, मन्दिरं दीपकं विना । सेनाध्यक्ष विना सेना, शोभते न तथा वयम् ॥ ५४१॥ पूर्वोक्त गुरुश्रीकी अवस्थाको देखकर चतुर्विध श्रीसंघ धर्मतत्त्व गर्भित मोटी चिन्ता करने लगे ॥ ५३६ ॥ कानों में अमृतके समान मधुर सत्पुरुषोंकी नीति और रीतिको बताने वाले, सच्ची उत्तम २ शिक्षाओंके घर, विवेक
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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