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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। क्रोध, लोभादि बाह्य गुणोंसे अलग हो कर खास आत्माके ज्ञान दर्शन चारित्रादि गुणोंमें अतीव लवलीन थे ॥ ५२६ ॥ परन्तु रास्तेमें चलते २ अति श्वास बढ़नेसे शिष्यों व श्रीसं. घकी प्रार्थनासे माण्डवगढ़की यात्राके भावको छोड़कर श्रीवर्धमानस्वामी के दर्शन की चाहनासे क्रमशः राजगढ़ पधारे ॥ ५२७ ॥ ४४--आर्याऽऽगमो, ज्वर श्वासैधनश्चअत्राऽऽजग्मुश्च साध्व्योऽपि, श्रीगुरोर्दर्शनेच्छया । प्रवर्तिनी तु प्रेमश्रीः, शुद्धचारित्रपालिका ॥ ५२८ ॥ स्थविराऽऽसीत्तु मानश्री, रम्योपदेशदायिनी । तथा मनोहरश्रीस्तु, तथान्या अपि सत्तमाः ॥ ५२९ ॥ ततो दुष्टज्वरोऽप्यागाद्, गुरुसङ्गचिकीर्षया । कदेदृक्षनरत्नस्य, दर्शनं मे क यास्यति ? ॥ ५३० ॥ अथैतो जरया सार्ध, गाढप्रीतिं प्रचक्रतुः। गुरुस्त्वेकस्त्रयश्चैते, मुदैकत्राऽमिलन् खलाः ।। ५३१ ॥ ते त्रयोऽपि महादुष्टाः, स्वस्वशक्तिमदीहशन् । प्राज्यौषधप्रदानस्ते, सुशान्ति नैव भेजिरे॥ ५३२ ।। ___ यहाँ गुरुश्रीके दर्शनकी चाहनासे साध्वियाँ भी आई, उनमें शुद्ध चारित्र पालने वाली प्रवर्तिनी प्रेमश्रीजी थीं ॥५२८॥ रमणीय उपदेश देनेवाली स्थविरा मानश्रीजी वैसेही
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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