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________________ १३५ श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी । श्री दीप विजयो विद्वा-नाचार्यो विद्यतेऽधुना । राजते प्रतिभाशाली यतीन्द्रविजयो बुधः ।। ५२३ ॥ श्रीलक्ष्मीविजयो ज्यायान्, शास्त्राणां लेखने पटुः । गुलाबविजयः शश्वत्, सच्छास्त्राभ्यसने रतः ॥ ५२४ || श्रीहर्षविजयो धीमान्, वैयावृत्त्यकरः सदा । श्रीहंसविजयो हंस - तुल्यः शोशुभ्यते स्वतः || २२२|| इत्यादिकैर्विनेयैस्तैः, सत्त्वात्मा चाचकीत्यसौ । आत्मधर्मसुरक्तोऽभू-द्विरक्तो हि बहिर्गुणैः ॥५२६ ॥ श्वासवृद्ध्या परं मार्गे, यात्राभावं विमुच्य सः । क्रमाद्राजगढं प्राप, चरमार्हद्दिदृक्षया ।। ५२७ ।। विद्वद्वर्य श्रीमान् मुनिश्रीदीपविजयजी थे, जिनको संवत् १९८० द्वितीय ज्येष्ठमुदि ८ के रोज जावरा ( मालवा ) में भारी समारोहसे आचार्यपद मिला था, जो विद्यमान हैं । प्रतिभाशाली कोविद मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी थे ।। ५२३ ।। शास्त्रोंके लिखने में चतुर वयोवृद्ध मुनिश्रीलक्ष्मी विजयजी थे । सदा उत्तम शास्त्रों के अभ्यास में निमग्न मैं मुनिगुलाबविजय भी था ।। ५२४ ।। हमेशा वैयावृत्य करने वाले बुद्धिशाली मुनिश्रीहर्षविजयजी थे | राजहंस सदृश - विमलात्मा मुनिश्री - हंस विजयजी तो स्वयमेव अतीव शोभते थे ।। ५२५ ।। इत्यादि शुभ नामधारी उन विनेयों सहित सच्चगुणधारी गुरुश्री अत्यन्त शोभते थे और राग, द्वेष, मोह, माया, काम,
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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