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________________ श्रीराजेन्द्र गुणमञ्जरी । हस्तनिधिभूवर्षे, मधुकृष्णे सुदिकतिथौ । संघभक्तिजिनार्चादौ, वीयाय बहुलं धनम् ॥ ४९८ ॥ तीर्थयात्रां महानन्दैः, कृत्वैत्येभ्यः स्वपत्तनम् । संघभक्त्यादिकं चक्रे, मेने स्वं फलवज्जनुः || ४१९ || ११० एक समय गुरुजी विचरते हुए खाचरोद नगर पधारे, वहाँ गुरूके उपदेश से अनेक धर्मके कार्य हुए ॥ ४१४ ॥ उसमें मृणोत - चुन्नीलाल सेठने बड़ा भारी तीर्थयात्राका लाभ सुनकर अति हर्षसे मक्षी - तीर्थका संघ निकाला ॥ ४१५ ॥ वाचकगण ! इस संघ में सेठकी अर्जसे १५ शिष्यों युक्त गुरुमहाराज स्थान स्थान पर भव्यजीवोंको सुन्दर उपदेश देते हुए अतीव शोभते थे ।। ४१६ ।। यह संघ शास्त्रोक्त - विधिसे यात्रामें चलता था, अतः प्रीतिके साथ उन सभीको अपनी ओरसे अच्छी तरह भोजन जिमाते हुए क्रमसे आनन्द पूर्वक सेठने श्री मगसी - पार्श्वनाथजी की यात्रा कराई ||४१७|| संवत् १९६२ चैत्र वदि दशमीके रोज संघभक्ति में एवं जिनेश्वरकी पूजा आदि शुभ कृत्योंमें सेठने बहुत द्रव्य व्यय किया ।। ४१८ ।। इस प्रकार बड़े ही आनन्दसे तीर्थयात्रा कर और अपने नगर आकर सेठने साधर्मिक वात्सल्य आदि शुभ कार्य किये, बाद गुरुकृपासे अपना जन्म सफल मानने लगा ।। ४१९ ।।
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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