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________________ १०९ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। किया है ॥ ४११॥ फिर साधर्मिकवात्सल्यका उत्तम प्रभाव अन्य शास्त्र में भी कहा है--सब जीवोंके परस्परमें माता पिता आदि सब प्रकारके संबन्ध पहिले अनेक वार मिलचुके हैं। लेकिन साधर्मिक, साधर्मिकवात्सल्य आदिके संबन्ध तो कहीं प्रमाणबन्ध ही मिलते हैं ॥ ४१२ ॥ जिसने दीन जनोंका उद्धार नहीं किया, साधर्मिकोंके लिये साधर्मिकवात्सल्य नहीं किया, और हृदयके अन्दर वीतराग भगवानको धारण नहीं किया तो उसने अपना नर जन्म निष्फल ही खोदिया ऐसा समझें ।। ४१३ ॥ अन्यदा विहरन्नागात् , खाचरोदपुरं गुरुः । गुरुवाण्यात्र जातानि, धर्मकार्याण्यनेकतः ॥ ४१४ ।। श्रेष्ठिना तीर्थयात्राया-स्तदा श्रुत्वा महत्फलम् । मूणोत-चुनिलालेन, संघो निर्यापितो मुदा ॥४१५॥ तिथिशिष्यश्च सोऽप्यासी-द्विज्ञप्त्या श्रेष्ठिनोऽस्य भोः! स्थाने स्थाने ददव्या-नुपदेशं सुमञ्जुलम् ॥४१६॥ प्रीत्यासौ विधिनाऽगच्छ-त्तत्सर्वं हि सुभोजयन् । मगसीपार्श्वनाथस्य, यात्राऽऽनन्देन कारिता ॥३१॥ ' आसाएमाणा-ईषत्स्वादयन्तो बहु च त्यजन्तः इक्षुखण्डादेरिव' 'विस्लाएमाणा-विशेषेण स्वादयन्तोऽल्पमेव त्यजन्तः' खजूरादेरिव परि जेमाणा-सर्वमुपभुञ्जाना अल्पमप्यपरित्यजन्तः' 'परिभाएमाणा-ददतः' पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो ॥ भग० १२ श० १ उ० ॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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