SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९२ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । स्थिरता में कितनेक धर्मके ईर्ष्यालु, निन्दक, दुर्जन, एवं अज्ञ, धर्मके मर्मसे अनभिज्ञ, उपसर्गे कृतेऽप्यस्य, हानिः कापि तु नाऽजनि । त एवान्ते नतास्सर्वे, नेमुरेनं लसद्गुणम् ॥ ३४५ ॥ विवादे च जयं प्राप, सत्यधर्मप्रभावतः । यत्र यत्र गुरुश्चाऽगा-तत्र तत्र यशोऽजनि ॥ ३४६ ॥ नगर श्रेष्टिनो गेहे, गुर्जरीयप्ररूढितः गुरुरेष चतुर्मास, पर्यवीवृतदादरात् श्रीकदाग्रहदुर्ग्रह - शान्तिमन्त्रान्तु सज्जनैः । विशेषोदन्त उन्नेयः, श्रीराजेन्द्रारुणोदयात् ॥ ३४८ ॥ श्रीकृकसी पुरेऽनेन, सूरिवर्येण चारुणा । प्राकृतं शब्दशास्त्रं च, छन्दोबद्धं विनिर्मितम् ॥ ३४९ ॥ ॥ ३४७ ॥ श्रावकोंने उपसर्ग किये तो भी गुरूको तो किसी प्रकारकी हानि नहीं पहुंची, अन्त में वे सभी सनम्र चमत्कारी गुणवाले गुरुको नमते हुए || ३४५|| जहाँजहाँ आपका शुभ गमन हुआ वहाँ वहाँ शास्त्रीय वाद विवादमें आपको जय और बहुत यश ही प्राप्त हुआ || ३४६ || फिर गुरुमहाराजने गुजरात देशकी प्रथाके अनुसार अत्यादरसे नगर सेठके घर पर चौमासा पलटाया ।। ३४७ ।। यहाँ का विशेष वृत्तान्त सज्जन पुरुषों को ' श्रीकदाग्रह दुर्ग्रहनोशान्तिमंत्र' और 'श्रीराजेन्द्र
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy