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________________ ( ३९६ ) संगथी सदा विमुख रहे छे. तथा जेओ निर्मळ गुणोने धारण करे छे-तेवा नररत्नोने नमस्कार छे. ७८ वर्जनीयो मतिमता दुर्जनः सख्यवैरयोः। श्वा भवत्यपकाराय लिहन्नपि दशन्नपि ॥ ७९॥ __भावार्थ-मतिमान् पुरुषे दुर्जन साथे मित्राई अने वैरभाव पण न राखवो कारण के श्वान चाटे अथवा करडे तो पण तेथी अनर्थज थाय छे. ७९ वृथा ज्वलितकोपानेः परुषाक्षरवादिनः। दुर्जनस्यौषधं नास्ति किंचिदन्यदनुत्तरात् ॥८॥ भावार्थ-क्रोधाग्मिने वृथा प्रज्वलित करनार तथा कठोर वाक्य बोलनार एवा दुर्जनने अनुत्तर ( जवाब न आपवो) शिवाय अन्य कंइ औषध नथी. ८० वरमत्यंतविफलः सुखसेव्यो हि सज्जनः। न तु प्राणहरस्तीक्ष्णःशरवत्सफलः खलः॥८॥ ___ भावार्थ-कंई पण फळ प्राप्त न थाय, छतां सजन पुरुषनी सेवा करवी ते सारी छे, परंतु तीक्ष्ण बाणनी जेम प्राणर्नु हरण करनार एवा खल पुरुषनी सेवा करवी-ते फलसहित होय तो पण ते खराब छे.८१
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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