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________________ "पूर्व न्यायविशारदत्वबिरुदं काश्यां प्रदत्तं बुधैः, न्यायाचार्यपदं ततः कृतशतग्रन्थस्य यस्यार्पितम् ॥" अर्थ-जिसको (जसविजयजी) को पहले काशी में पण्डितों ने 'न्यायविशारद' बिरुद दिया और बाद में १०० ग्रन्थों की रचना करने वाले को न्यायाचार्य पद भी दिया गया। २-तथा "न्यायाचार्य बिरुद तो भट्टाचार्य न्यायग्रन्थरचना करी देखी प्रसन्न हुइ दिऊँ छइ ।.... .... .... .... न्यायग्रन्थ २लक्ष कीधो छई। तो बौद्धादिकरी एकान्त युक्ति खंडो स्याद्वादपद्धति मांडीनह ।" -श्रीयशोविजय के स्तम्भतीर्थ से जेसलमेरवास्तव्य साहहररान पर लिखित पत्र में से । इस उद्धरण से पता चलता है कि श्री जमविजय महाराज ने अपने पठनकाल में हो बृहत्काय ग्रन्थ की रचना की होगी। लघु स्याद्वादरहस्य में न्यायवादार्थ, अध्यात्ममतपरोक्षा आदि अनेक स्वोपज्ञ ग्रन्थों का उल्लेख मिलता हैं। 'लघु स्या. र.' का रचना काल संवत् १७०१ होने से दीक्षा के बाद केवल १२-१३ वर्ष के अन्तर में ही श्री उपाध्यायजी महाराज ने अनेक ग्रन्थों की रचना को होगी जिनमें अध्यात्ममतपरीक्षा आदि ग्रन्थ तो उपलब्ध है किन्तु दो लक्ष श्लोकपरिमाण वाला ग्रन्थ जो हमारे ख्याल से न्यायवादार्थ हो होना चाहिए अभी अनुपलब्ध है यह एक दुर्भाग्य की बात है। आग्रा में अभ्यास पूर्ण करने पर गुरु शिष्य का युगल जब अहमदाबाद आया तब भारी धामधूम से उनका नगर प्रवेश कराया गया और श्री यशोविजय महाराज की १८ अवधान की कला देख कर वहाँ का सुबा महोबतखान प्रसन्न हुमा । श्री यशोविजय महाराज का पूरा जीवन प्राचीन-नवीनन्यायशैली के मिश्रण वाले सैद्धान्तिक और न्याय प्रन्थो की रचना में ही समाप्त हुआ । संवत् १७१८ में श्री विजयप्रभसूरि ने उनको उपाध्याय पद से अलंकृत किया और तब से श्री यशोविजय महाराज 'उपाध्यायजो' के दुलारे नाम से ही बहुधा प्रसिद्ध बने । वि. सं. १७४३ में बडौदा के पास दर्भावती (डभोई) नगर में चातुर्मास किया था । उसके बाद सं० १७४४ में उसी नगर में समाधिपूर्ण स्वर्गबासी बने । जिस स्थान पर श्रो उपाध्यायजो का अग्निसंस्कार किया गया था उसी स्थान पर एक स्तूप बनाकर गाँव के संघ ने वहाँ उपाध्यायजी के पदयुगल की स्थापना की । आज भी यह स्तूप डमोई में श्री यशोविजय महाराज की विद्वत्ता का यशोगान कर रहा हैं। ५५ वर्ष के दीक्षा पर्याय में श्री उपाध्याय जी महाराजने लाखों लोक प्रमाण ग्रन्थ रचना के द्वारा श्री जैन शासन की अपूर्व सेवा की। जैन संघ श्री यशोविजय महाराज के वचनों में प्रामाणिकता का संपूर्ण विश्वास रखता हैं । इतना ही नहीं जैनेतर पंडित भी
SR No.022623
Book TitleSyadvad Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Mahopadhyay
PublisherBharatiya Prachyatattv Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages182
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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