SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व ५२७ भक्त-प्रत्याख्यान करके देहत्याग किया और सौधर्म कल्प में देव हो गया। बात यह थी कि उस कसाई को देवरूप ब्राह्मण ने ही अपनी मति से निर्मित कर, पुत्र को धर्ममार्ग पर ले आने के निमित्त उसे उससे उत्पीडित कराया था । और, इस प्रकार, प्रतिबोधित करके पिता ने पुत्र का तिर्यग्गति से उद्धार किया । चौथी कथा ( 'सकयकम्मविवागे कोंकणयबंभणकहा : २९.१७) धम्मिल्लचरित में कही गई है। इसमें मगध- जनपद के पलाशग्राम के कोंकणक नामक ब्राह्मण की कथा है, जो अपने कर्मविपाकवश (शमीवृक्ष के नीचे स्थापित देव को बकरे की बलि चढ़ाने के कारण) मरने के बाद स्वयं वह अपने घर में ही बकरे के रूप में उत्पन्न हुआ। कुछ दिनों बाद कोंकणक के पुत्र ने अपने मृत पिता को उद्दिष्टकर बन्धु बान्धवों को आमन्त्रित किया और देवता की पूजा की। उसके बाद उसका पुत्र (कोंकणक का पौत्र) अपने घर के बकरे (अर्थात्, अपने पितामह) के गले में रस्सी बाँधकर, बेंबियाते हुए उसे वध के लिए ले चला। उसी समय पेड़ के नीचे विश्राम करते हुए एक सिद्ध साधु ने बकरे से उसके पूर्वकृत पाप के बारे मे कह सुनाया और अन्त में, कोंकणक के पुत्र-पौत्र को उस बकरे के पूर्वभव का परिचय दिया । वस्तुस्थिति स्पष्ट होने पर बकरे को मुक्त कर दिया गया। इस कथा का सार यही है कि स्वयंकृत कर्म के कारण ही मनुष्य इस संसार में दुःख पाता है और वह साधु की कृपा से ही ज्ञान प्राप्त कर दुःखमुक्त हो सकता है 1 पाँचवीं कथा ( 'राहुगपुव्वभवकहा : ८६ : २७) पीठिका - प्रकरण में प्रद्युम्न के पूर्वभव की. कथा के सम्बन्ध में उपन्यस्त की गई है। इसमें बलान्मूक राहुक के विभिन्न पूर्वभवों की विचित्रता की कथा कही गई है। सत्य नामक सत्यवादी साधु के उपदेश से ही उसे आत्मस्वीकृत गूँगेपन छुटकारा मिला । कथाकार ने पूर्वभव की सिद्धि के क्रम में इस कथा का विनियोग किया है। से छठीं कथा ('परलोगपच्चए धम्मफलपच्चए य सुमित्ताकहा' : ११५. २२) को शरीर - प्रकरण में उपस्थित किया गया है। इसमें भी परलोक और धर्मफल के अस्तित्व की सिद्धि के लिए वाराणसी के राजा हतशत्रु की पुत्री सुमित्रा के बाल्यभाव में ही पूर्वजन्म के स्मरण हो आने का रोचक वृत्तान्त उपन्यस्त किया गया है । सातवीं कथा ('इच्चाइमुणिचउक्ककहा' : २८४.१४) अट्ठारहवें प्रियंगुसुन्दरीलम्भ में आई है, जिसमें एक मुनि ने रमणीय ग्राम के ग्रामस्वामी देवदत्त से सारस्वत, आदित्य, वह्नि और वरुण नामक मुनियों के ब्रह्मलोक से च्युत होकर दक्षिणार्द्ध भरत के यथाक्रम ऋषभपुर, सिंहपुर, चक्रपुर तथा गजपुर नामक नगरों में आदित्य, सोमवीर्य, शत्रूत्तम और शत्रुदमन राजाओं के रूप में पुनर्जन्म ग्रहण करने की कथा कही है। यह कथा भी पूर्वभव और परभव के सम्बन्धों की विचित्रता को बताने के उद्देश्य से ही गुम्फित की गई है। इस प्रकार, उपरिवर्णित सातों खण्डकथाएँ विशुद्ध धर्मकथा की कोटि में आती हैं, इसलिए कथाकार ने इन्हें 'कथा' की संज्ञा-प्रदान की है। कथाकार ने 'सम्बन्ध' या 'कथासम्बन्ध' - संज्ञक अनेक कथाएँ उपन्यस्त की हैं। ये निम्नांकित रूप में प्रस्तुत हैं : पभवसामिसंबंधो (७.११); पसन्नचंद-वक्कलचीरीसंबंधो (१६.१६), जंबुसामिपुव्वभवकहाए भवदत्त-भवदेवजम्मसंबंधो (२०.१९), सागरदत्त - सिवकुमार - संबंधो (२३.७), जियसत्तुरायपुव्वभवसंबंधो (३८.२१); दढधम्माइमुणिछक्कसंबंधो (४८.७); पज्जुण्ण-संबकुमारकहासंबंधी (७७.४);
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy