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________________ ५१६ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा (पृ.१११) विढवेइ (अर्जन करता है, पृ.११६), खिसिया (खिसियाकर : 'सनिट्ठरं खिसिया भणियाओ य', पृ.२८२); वुट्टे (अर्द्धमागधी प्रयोग : प्रथमा के एकवचन में ए की प्रवृत्ति, पाठान्तर के अनुसार छुट्टो; छूटा हुआ, खुला हुआ बछड़ा : 'खुट्टे : छुट्टो वच्छो त्ति', पृ.१२०); रस्सीओ (पृ.१५५), कलत्त (नितम्ब के अर्थ में : 'इत्थीणं पुण कलत्तगुरुयताए पण्हियासु उविद्धाणि भवंति', पृ.१३५), सहिण< श्लक्ष्ण (पृ.१३४); मंडुक्की (खोली या झोली के अर्थ में, पृ. १३८), सव्वं समादुवाली काऊण (सारी खाद्य-समाग्री को एक साथ सानकर, पृ.२९०); उपत्ती< उत्पत्ति (१५१.२२); आभोइओ <आभोगित:, अर्थात् दृष्टः (११.२३); कक्खड< कर्कश (२२.१०); फिडिया (टूटने या भग्न होने के अर्थ में : २२१.२७); भरहो (बोरे के अर्थ में : १५.१९); पेल्लियं (१३.७); चंग (सुन्दर, ६५.१०); विलयाए< वनितया (९६.३२); वेण (बिछावन के अर्थ में : १८०.१०); अवयरो (अधम के अर्थ में : २४९.९); अणोयत्तं< अवनतं (पृ.१३८), आडत्तं ( किराये पर देने के अर्थ में : 'खीणे य धणे घरणीए घरं आडत्तं, पृ.१४४), आगीयं< आकृति (पृ.२७९), उवछुभति (एकत्र करने के अर्थ में : 'उवछुभति भंडं', पृ.१४५); पीहइंपीहगं (नवजात बच्चे के लिए पेय : यूंटी : के अर्थ में, पृ.१५२); जाणुक (जानकार : 'पंथो पडिसिद्धो जाणुकजणेण, पृ.१७६), डियलितो (पृ.२२९); 'वसहि-पारासेहिं< वसति-प्रातराशैः (पृ.२०९); पारद्धाओ (डण्डे से मारकर हटाने के अर्थ में : 'गोवा डंडहत्था तं पदेसमुवगया। . .ततो णेहिं गाओ पारद्धाओ,' (पृ.१८२); कठिणसंकाइयं (पालि-विनयपिटक में 'कठिण' का प्रयोग झोले के अर्थ में हुआ है। यहाँ भी इसी अर्थ में सम्भावित है : 'जमदग्गी वि. कठिणसंकाइयं घेत्तूण इंदपुरमागतो', पृ.२३७); हेफहेण = हेप्फअ= हेप्फग< हेप्फक ('क' की जगह 'ग', 'अ' और 'ह' भी, पृ.३०९); वणीमग < वनीपक ('प' की जगह 'म', पृ.२९); ओयविन्तेण (परिकर्मित, सेवित : ‘सा य किर.. वासुदेवेण भरहं ओयविन्तेण दिट्ठा', पृ.२६५); सुगिहाणं (सुग्गा पक्षी के अर्थ में : 'जहा समाणे सउणभावे सुगिहाणं.. पृ.२६७); तत्ती (तत्परता, पृ. ३४५); डक्को< दष्ट : (पृ. २५४); कडुच्छय (कलछुल, पृ. १४७); कंसार (इंगुद-कंसार-णीवार-कथसंगहं, पृ.३५३); कुंटी (कुब्जा, कुबड़ी और बौनी; पृ.३५७); चम्मद्दि (चकमा के अर्थ में : पृ. ५०)। इनके अतिरिक्त भी लंखिया, लंडिया, कूव, होउदार, कुडंग, देवपाओग, अपज्जत्तीखमं, उच्चोली (झोली), अत्थघ (अथाह), उच्चावग (ठगनेवाला, वंचक, उचक्का), दलिय (छिद्र, घात) आदि अनेक आगमिक या देश्य शब्दों का प्रयोग संघदासगणी ने किया है, जिनका प्रसंगानुसार सामान्य अर्थ ही बुद्धिगत होता है । डॉ. पिशल के व्याकरण में 'वसुदेवहिण्डी' का सन्दर्भ कहीं नहीं आया है । स्पष्ट ही, उस समय तक यह महाग्रन्थ उनके दृष्टिपथ में नहीं आया था। यहाँ तो कुछ ही शब्द निदर्शन-मात्र उपन्यस्त किये गये हैं। अन्यथा, 'वसुदेवहिण्डी' में अभिनव, अस्पृष्ट और अनास्वादित शब्दों के प्रयोग भरे पड़े हैं, जो शब्दशास्त्रियों को निरन्तर आमन्त्रित करते हैं, ताकि वे उनके तत्त्व की तल-सीमा तक पहुँचकर निश्चित निरुक्ति, व्युत्पत्ति और वास्तविक अर्थ का अन्वेषण और उद्भावन कर सकें । वैयाक रणों की यह मान्यता है कि धातु और शब्द अनेकार्थवाची होते हैं । इसके उदाहरण में 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा को सबसे आगे रखा जा सकता है । संघदासगणी वश्यवाक् कथाकार और भाषा के प्रौढ पण्डित थे, इसलिए उन्होंने अपनी कथा में हृदयावर्जकता उत्पन्न करने के लिए एक कुशल नृत्यनिर्देशक की भाँति शब्दों की अर्थभंगिमा को स्वेच्छानुसार विभिन्न चारियों में नचाया है और आवश्यकता पड़ने पर नये शब्दों का निर्माण भी किया है। १. प्राकृतशब्दमहार्णव' के अनुसार, चावल के चूर्ण से बननेवाली एक मिठाई, कसार। सूर्य की पूजा में कसार __ अर्पित करने की प्रथा लोकादृत है। ले.
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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