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________________ वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व ५१५ अर्द्धमागधी के समान ही तृतीया के एकवचन में सा का प्रयोग (मणसा, वयसा, कायसा आदि), क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर च्चा, ता, तूणं, ऊणं, तूण, उण, उं आदि का आदेश (सोच्चा, वंदित्ता, गंतूण, चविऊण, काउणं, सामत्येऊणं, मारेऊणं, दट्टणं, ठाउं, काउं आदि); त प्रत्ययान्त रूपों में 'त' की जगह 'ड' (कडं< कृतं, वावडं< व्यापृतं, संवुडं< संवृतं आदि)। ये कतिपय भाषिक प्रवृत्तियाँ निदर्शन के रूप में उपस्थाप्य हैं। कहना न होगा कि 'वसुदेवहिण्डी' में भी ये समस्त भाषिक प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं। इनके अतिरिक्त, 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में प्रयुक्त अव्वो अव्वो, हितय, कतली, पातरास, अम्मातातो, समतो, भिंगार, इसी, होति, पिव (इव), घेप्पामि, घेत्तूण आदि प्रयोग उसकी पैशाची प्रवृत्ति के ही द्योतक हैं। पुनः चलणेणं, कीला (क्रीडा) आदि प्रयोग 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा की मागधी प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हैं। इसी प्रकार, पडिपुण्ण, पडिबद्ध, भिंभल आदि शौरसेनी तथा रिट्ठ, सर, साहा, सोलस, वामोह, दंसण, नक्क (नाक) आदि अपभ्रंश की प्रवृत्ति की सूचना देते हैं। ___सतर्कता से भाषाशास्त्रीय परीक्षण करने पर, पालि के भी विभिन्न प्रयोगों से 'वसुदेवहिण्डी' के प्राकृत-प्रयोगों का साम्य उपलभ्य सम्भव है। उदाहरणार्थ : वाह (२.१०), कोलंब (४४.९), वाल (४४.२१), परियत्ति (६९.१०), थेव (२५६-२६), कठिण (२३७-१२), खुरप्प (पालि : खुरप्पजातक), सुंक (१३.१३) आदि शब्द द्रष्टव्य हैं। स्पष्ट है कि 'वसुदेवहिण्डी' की सर्वमिश्रा अर्द्धमागधी में पालि की अनेक प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं। पालि की विभिन्न प्रवृत्तियों की दृष्टि से 'वसुदेवहिण्डी' का स्वतन्त्र भाषिक शोध-अध्ययन अपेक्षित है। (पालि-प्राकृत के कतिपय तुलनामूलक शब्द परिशिष्ट १ में द्रष्टव्य हैं)। संघदासगणी की 'वसुदेवहिण्डी' में केवल भाषिक प्रयोग-विविधता ही नहीं है, अपितु अर्थगूढ एवं आगमेतर साहित्यिक ग्रन्थों में प्रायः अनुपलब्ध तथा प्राकृत-कोश के समृद्धिकारक प्रायोगिक चमत्कार की पर्याप्तता भी है, जिनमें देश्य शब्दों के प्रयोग विशेषतया परिगणनीय हैं। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है : भेलविय (भेलित : मिश्रित : महाराष्ट्र में प्रयुक्त (जैसे : 'भेलपूरी') : सो भयभेलवियदिट्ठी जलं ति मन्नमाणो, (पृ.६) : ड हरिका =ड हरिया (छोटी : 'डहरिकासु नावासु' पृ.११), डहरग ('डहरगं दारगं गहेऊणं', पृ.२२), खंत (पिता : 'खंतरूवं च काऊणं देवो दंसेई से पुरओ अप्पाणं,' पृ.२२); कुल्लरियावण (हलवाई की दुकान, पृ.३९); डिंडी (दण्डिन् = दण्डाधिकारी; डॉ. मोतीचन्द्र के मत से छैला, पृ.५१); संगार (संकेत, पृ.५४); सुरियत्तग्गहत्थो (सुरीयमाणाग्रहस्तः = सैंड़ का अच्छी तरह संचालन करते हुए, पृ.५५), पोट्ट (उदरपेशी, पेडू : 'वसुदत्ताए पोट्टे वेयणा जाया,' पृ.६०), कुक्कुस (भूसा, पृ. ६२); वासी (बसूला, पृ.६३); सच्छमा (सदृशी, 'तिलतिल्लधारासच्छमा', पृ.६७), खुड्डय (अंगूठी : 'दाहिणहत्थेणं खुड्डएणं, पृ.७२); सॉपच्छाइयसरीरा (सम्प्रच्छादितशरीरा, पृ.७३); कागबलं पोएमि ('काकबलं पातयामि, पृ.८१), तेइच्छं (चैकित्स्यं, पृ.८७); उद्धसिय (रोमांचित, पृ.८८), कडिल्ल (कमर, कटिवस्त्र, पृ.९४), कडिल्ल (जंगल के अर्थ में, पृ.३२३), वेकड ('पलंडुलसुण-वेकड-हिंगूणि' पृ.१०६), मरणरहट्ट (रहट, पृ.२७२); रुइयाणि (पीसकर मिलाने के अर्थ में : 'छगलमुत्तेण सह रुइयाणि, पृ.१०६), फरिसेऊण (डाँटकर, पृ.१०७), चउक्क (चतुष्क : चार के अर्थ में और शहर के चौक के अर्थ में भी; कोडिचउक्के, पृ.१०७ तथा 'सावत्थी चउक्कम्मि,' पृ.२८९); उल्लटंतीमिच्छसि (तू उलटना चाहती है, पृ.१०७), अतितयं< अत्यन्तं (पृ.१०७), बुहाहंकारा
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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