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________________ ३८४ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा कलाओं और साहित्य में समाविष्ट हो गया। साँची, भरहुत आदि में शुंगकालीन शिलांकित कल्पवृक्ष या कल्पलताएँ इस रूप की हैं कि उनकी शाखाओं, पुष्पों तथा कलिकाओं से विभिन्न प्रकार के वस्त्राभूषण उत्पन्न होते दिखाये गये हैं । कहना न होगा कि कल्पलता कल्पवृक्ष का ही नारी रूप है। 'महाभारत', 'रामायण', पुराण, काव्यग्रन्थ आदि समस्त प्राचीन भारतीय वाङ्मय में, सार्वत्रिक रूप से, कल्पद्रुम की कल्पना मनोरथपूरक वृक्ष के रूप में ही की गई है। 'वसुदेवहिण्डी' में संघदासगणी ने भी कल्पवृक्ष की, आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाले कल्पना- वृक्ष या कामना-वृक्ष के रूप में ही परिकल्पना की है, साथ ही कल्पवृक्षोत्तर काल की परिस्थिति का भी उपन्यास किया है। उन्होंने लिखा है कि ऋषभस्वामी के राज्य में, उत्तरवर्त्ती काल में वस्त्रवृक्ष या वस्त्र प्राप्त करने के साधन कल्पवृक्ष की कमी पड़ जाने पर भगवान् ने जुलाहों को उपदेश किया। फलतः, उन जुलाहों ने वस्त्र बनाने की विधि का आविष्कार किया। इसी प्रकार, गृहाकार कल्पवृक्ष की कमी पड़ने पर घर बनाने के काम के लिए बढ़ई तैयार किये गये (नीलयशालम्भ : पृ. १६३) । कल्पवृक्ष की कल्पना मानव के ऐतिहासिक विकास की उस अवस्था को सूचित करती है, जब वह अपनी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वृक्षों (वनस्पतियों) पर निर्भर करता था । इसी तरह कामधेनु की कल्पना गोवंश (कृषि और पशुपालन) पर उसकी पूर्णत: निर्भरता की ऐतिहासिक अवस्था को संकेतित करती है । संघदासगणी के वर्णन से सूचित होता है कि पुराकाल में शिबिकाओं में कल्पवृक्ष अंकित करने की प्रथा थी । वसुदेव जब कामदेव सेठ की इच्छा के अनुसार राजकुल में जाने के विचार से बाहर निकले थे, तब उन्होंने भवन के द्वार पर कुशल शिल्पी के बुद्धिसर्वस्व से निर्मित, भौरों के लिए प्रलोभन-स्वरूप कल्पवृक्षों से अंकित तथा कुतूहली जनों के लिए नयनप्रिय शिबिका तैयार देखी थी (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २८१) । महाभारत के भीष्मपर्व में इस बात का उल्लेख है कि उत्तर कुरुप्रदेश की स्त्रियाँ कल्पवृक्ष के वैभव का प्रचुर उपयोग करती थीं। इसी की समानान्तर चर्चा संघदासगणी ने भी की है। उन्होंने लिखा है कि श्रीसेन प्रभृति चारों प्राणी देवकुरु (उत्तरकुरु) - क्षेत्र के प्रभाववश कल्पवृक्ष से प्राप्त परम विषय - सुख का अनुभव करते हुए तीन पल्योपम जीवित रहकर मृदुल भावनापूर्वक देवायुष्य अर्जित करके, सुख से काल को प्राप्त हुए और चारों जीव सौधर्म कल्प में देव के रूप उत्पन्न हुए (केतुमतीम्भ : पृ. ३२३) । ‘स्थानांग' (१०.१४२) के अनुसार, संघदासगणी ने भी देवलोक-स्वरूप उत्तरकुरु हद के तट पर भोगोपभोग की सामग्री को तत्क्षण उत्पन्न करनेवाले दशविध कल्पवृक्ष के होने का उल्लेख किया है : "ततो तम्मि देवलोयभूए दसविहकप्पतरुप्पभवभोगोपभोगपमुइयाई कयाइ उत्तरकुरुद्दहतीरदेसे असोगपायवच्छायाए वेरुलियमणिसिलातले नवनीयसरिससंफासे सुहनिसण्णाई अच्छामु"; (नीलयशालम्भ: पृ. १६५) ।' स्थानांग' में लिखा है कि सुषमा- सुषमाकाल में दस प्रकार के वृक्ष .१ १. सुसमसुसमाए णं समए दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए हव्वमागच्छन्ति, तं जहागया य भिंगा, तुडतंगा दीवजोति चित्तंगा । - चित्तरसा मणिगंगा, गेहागारा अणियणा य ॥ स्थानांग : १०. १४२
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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