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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
में व्याप्त तत्कालीन अनाचारों का निर्वैयक्तिक भाव से यथातथ्य चित्रण उपस्थित किया है । यों, सांख्यमत के अनुयायी संन्यासियों की 'त्रिदण्डी' संज्ञा शास्त्रसम्मत है । किन्तु, धम्मिल्लहिण्डी की अगदत्तमुनि-कथा में कथाकार ने परचित्तमोहक व्यवहार में परम पटु एक ऐसे त्रिदण्डी परिव्राजक से पाठकों की भेंट कराई है, जो अपने त्रिदण्ड (छद्म गुप्ती) में शस्त्र छिपाकर रखता था और रात
आरामुख नहरनी से सेंधमारी करता था । उस पाखण्डी त्रिदण्डी की हुलिया कथाकार के शब्दों में देखिए : “वह गेरुआ वस्त्र पहने हुए था; एक कपड़ा उत्तरासंग के रूप में, उसके शरीर के ऊपरी भाग पर था; एक वस्त्रखण्ड को कन्धे के ऊपर तथा काँख के नीचे से लाकर फेंटा बाँधे हुए था; बायें हाथ में कमण्डलु लटका था और बायें ही हाथ से पकड़ा गया त्रिदण्ड उसके कन्धे को छू रहा था; दायें हाथ से वह माला फेर रहा था; थोड़ी ही देर पहले उसने अपनी दाढ़ी और
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मुड़वाये थे, साथ ही वह मन-ही-मन कुछ बुदबुदा रहा था ” ( धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४० ) । यह त्रिदण्डी चोर ही नहीं था, हत्यारा भी था । इस प्रकार, वह परिव्राजक के नाम पर कलंक था ।
परिव्राजिकाएँ भी त्रिदण्ड और कमण्डलु धारण करती थीं। 'वसुदेवहिण्डी' में कथा (मदनवेगालम्भ : पृ. २३२) है कि शूरसेन - जनपद के सुदीप्त सन्निवेश के सोम नामक ब्राह्मण की पुत्री अंजनसेना निर्वेदवश परिव्राजिका हो गई थी । वह त्रिदण्ड और कमण्डलु धारण करती थी, अथच सांख्य तथा योगशास्त्र में उसका विशेष प्रवेश था। वह गाँवों, नगरों और जनपदों में घूमती रहती थी : “तिदंडकुंडियधरी संखे जोगे च कयप्पवेसा गाम-नगर-जणवएसु विहरंती । ” यह पण्डिता होते हुए भी खण्डिता । इसने मथुरा के सागरदत्त सार्थवाह की पत्नी मित्रश्री को नागसेन नामक वणिक्पुत्र से वासनात्मक प्रेम करने के लिए बहकाया-फुसलाया था, जिसके लिए मथुरा के राजा ने उसके नाक-कान कटवाकर उसे देश-निर्वासन का दण्ड दिया था (तत्रैव : पृ. २३३) ।
कार्पटिक साधु बीहड़ जंगली रास्तों से अच्छी तरह परिचित रहते थे । चारुदत्त जब जंगल में भटक गया था, तब वह एक कार्पटिक साधु की सहायता से ही बहुत कष्टपूर्वक उस घोर जंगल से बाहर निकल पाया था (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४५ ) । त्रिदण्डी परिव्राजक याज्ञवल्क्य और सांख्य-व्याकरण में कुशल परिव्राजिका सुलसा, इन दोनों ने परस्पर यौनाचार में लिप्त होकर अवैध सन्तान पिप्पलाद को जन्म दिया था। पिप्पलाद - प्रणीत हिंसायज्ञमूलक अथर्ववेद में निर्दिष्ट उपदेशों के पालन के फलस्वरूप ही पिप्पलाद के शिष्य वर्दली को छह बार जन्म-मरण का कष्ट भोगना पड़ा था (तत्रैव : पृ. १५१-१५३) ।
संघदासगणी ने श्रमण-धर्म का परित्याग कर ब्राह्मण-धर्म स्वीकार करनेवाले क्षत्रिय भूपतियों को भी अपने आक्षेप का लक्ष्य बनाया है। कथा (नीलयशालम्भ : पृ. १६३) है कि ऋषभस्वामी जब कच्छ, महाकच्छ आदि चार हजार क्षत्रियराजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर मौन विहार कर रहे थे, तभी पारणा के समय भिक्षा के लिए जब वह गृहस्थों के घर गये, तब गृहवासियों ने कन्याएँ, सोना, वस्त्र और आभूषण तथा हाथी-घोड़े प्रस्तुत किये। भगवान् ऋषभदेव के साथ दीक्षित चार हजार क्षत्रिय- भूपति भूख से पीड़ित होने के कारण दुःखी रहते थे। उन्होंने भगवान् की बातों की अवहेलना कर दी और वे अभिमानी हो गये । पुनः राजा भरत के भय से वे जंगलों में फल-मूल का आहार लेने लगे तथा वल्कल और चर्म धारण करनेवाले ब्राह्मण-मतानुयायी तपस्वी हो गये ।