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________________ ३५० वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति को बृहत्कथा शान्त हुआ और ब्राह्मणपुत्र प्रकृतिस्थ हो गये। तदनन्तर, दोनों ब्राह्मणपुत्रों ने सत्य के पैरों पर गिरकर शुद्ध हृदय से निवेदन किया : “भगवन् ! आपही हमारे रक्षक हैं। आज से हम आपके शिष्य हुए। हम साधुधर्म का पालन तो नहीं कर सकते, पर गृहधर्म स्वीकार करते हैं। इसके बाद वे दोनों अणुव्रत (जैन गृहस्थ के लिए निर्धारित नियम) धारण करके श्रावक हो गये। फिर, उन्होंने अपने माता-पिता से भी श्रमण-धर्म स्वीकार कर लेने का आग्रह किया। लेकिन, उन्होंने अपने बेटे का आग्रह नहीं माना। ___ इस कथा से स्पष्ट है कि उस युग में श्रमण-धर्म स्वीकार करने के लिए ब्राह्मणधर्मियों को विवश किया जाता था और इसके लिए ऐन्द्रजालिक विद्याबल तक का भी सहारा लिया जाता था । वस्तुतः, यह तत्कालीन ब्राह्मण-धर्म और श्रमण-धर्म के बीच चलनेवाली पारस्परिक खींचतान को सूचित करनेवाला मनोरंजक दृष्टान्त है। साथ ही, इससे यह भी संकेतित होता है कि उस युग में श्रमण-धर्म और ब्राह्मण-धर्म में आपसी अनास्था की धारणा बड़ी प्रबल थी। यद्यपि, तत्कालीन ब्राह्मण युवा पीढ़ी में श्रमण-धर्म के प्रति थोड़ा-बहुत आकर्षण तो रहता भी था, किन्तु पुरानी पीढ़ी के लोग श्रमणों को प्राय: हिकारत की नजर से ही देखते थे। संघदासगणी ने ब्राह्मण के लिए कई पर्यायों का प्रयोग किया है, जैसे ब्राह्मण, द्विजाति, विप्र, उपाध्याय आदि; किन्तु, प्राकृत में उन्होंने 'ब्राह्मण' के लिए 'माहण' और 'बंभण' ये दो रूप प्रयुक्त किये हैं और 'उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार, उन्होंने माहण की निरुक्ति की है-'मा जीवं हण त्ति' । अर्थात्, बस और स्थावर जीवों की मन, वाणी और शरीर से जो हिंसा नहीं करता, वही 'माहण' (सं. माहन) है। इससे यह स्पष्ट है कि उदारदृष्टि कथाकार ने ब्राह्मण को जाति-बन्धन में न जकड़कर, सम्पूर्ण रूप से अहिंसा-धर्म के पालनकर्ताओं को 'ब्राह्मण' शब्द से परिभाषित किया है। यद्यपि, उन्होंने पशुवध के प्रचारक हिंसावादी ब्राह्मणों की भी भूरिश: चर्चा की है और इस क्रम में प्राय: वैदिक परम्परा के ब्राह्मणों को ही आड़े हाथों लिया है। कथाकार ने ब्राह्मण को ‘पटुजाति' शब्द से भी विशेषित किया है। वसुदेव ने चारुदत्त सेठ को ब्राह्मण के रूप में ही अपना परिचय दिया था। इसलिए उन्होंने जब गन्धर्वदत्ता के साथ वीणा बजाई और गीत गाया, तब सेठ ने उनकी वादन और गान-विधि के सम्बन्ध में संगीताचार्यों से मन्तव्य माँगा। तब, आचार्यों ने कहा कि पटुजाति ने जो बजाया, उसे आपकी पुत्री ने गाया और आपकी पुत्री ने जो बजाया, उसे पटुजाति ने गाया। कहना न होगा कि कथाकार ने ब्राह्मण के इस विशेषण द्वारा उसके चालाक जाति के सदस्य होने की ओर व्यंग्यगर्भ परोक्ष संकेत किया है। कुल मिलाकर, सामन्तवादी कथाकार संघदासगणी जातिवादी तो नहीं हैं, किन्तु उनकी पूरी-की-पूरी 'वसुदेवहिण्डी' की कथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, इन तीनों जातियों की त्रिस्थूणा पर आधृत है। संघदासगणी ने त्रिदण्डी परिव्राजकों की जुगुप्सा जी खोलकर की है, साथ ही ब्राह्मण भिक्षुणियों पर भी तीक्ष्ण आक्षेप किये हैं। वैदिक साधुओं को कार्पटिक (कपटी, मायावी) तक कहा है, सिर्फ कहा ही नहीं है, कथा के द्वारा लक्ष्य-लक्षण की संगति भी उपस्थित की है। कथाकार का एतद्विषयक आक्षेप अनपेक्षित या अयथार्थ नहीं है, अपितु उसने ब्राह्मण-परम्परा के भिक्षु-जगत् १. तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे। जोन हिंसइ तिविहेणं तं वयं बूम माहणं ॥ उ. सू., २५.२२
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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