________________
२७२
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा
वेश्याओं की ही उनचौंसठ कलाओं का उल्लेख किया है, जिनके द्वारा वे (वेश्याएँ) रागदग्ध पुरुषों का चित्तविनोदन और आर्थिक शोषण किया करती थीं ।
निवृत्तिमार्गी श्रमण (जैन) - परम्परा की कलासूची में 'वेशिक' की गणना नहीं की गई है; किन्तु श्रमण-कथाकार संघदासगणी ने कथारस के विकास - विस्तार की दृष्टि से ललितकला के परिपोषक के रूप में गणिका-वर्ग का आकलन करना उपयुक्त समझा था; क्योंकि वह अपनी महत्कथा में युगीन यथार्थ का चित्रण ईमानदारी से करना चाहते थे, साथ ही वह गणिका के जीवन में प्रतिष्ठित कलाओं की महत्ता की सचाई को शास्त्रीय सत्य के रूप में देखने के आग्रही थे। शील, रूप और गुणों से युक्त तद्युगीन गणिकाएँ, अपनी कलाओं की विदग्धता के द्वारा ऊपर उठकर, गणिका कहलाई जाकर भी जनसमाज में विशिष्ट स्थान पाती थीं। वे गणिकाएँ राजाओं और विद्वानों से पूजित और स्तूयमान, कला के उपदेश के इच्छुकों से प्रार्थित, विदग्धों द्वारा चाही जानेवाली और सबकी लक्ष्यभूत होती थीं । संस्कृत - बौद्ध साहित्य में अनेक ऐसे उल्लेख हैं, जिनसे तत्कालीन 'गणिका के जीवन पर प्रकाश पड़ता है। 'महावस्तु' (३.३५-३६) की एक कहानी में कहा गया है कि एक अग्रगणिका ने एक चतुर और रूपवान् पुरुष को सुरत के लिए बुलवाया। उसने गन्धतैल लगाकर, स्नान करके, चूर्ण से अपना शरीर सुगन्धित किया तथा आलेपन लगाने के बाद काशिक वस्त्र पहनकर अग्रगणिका के साथ भोजन किया। गणिका अम्बपाली की कहानी बौद्धसाहित्य में विख्यात है ।' देवदासियाँ प्रायः देवगृहाश्रित नर्त्तकियाँ होती थीं। 'मेघदूत' (१.३४-३५) में उज्जैन के महाकाल-मन्दिर में चामरग्राहिणी वेश्याओं के नृत्य का वर्णन उपलब्ध होता है ।
संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में वेश्या या गणिका के जीवन का बड़ा विशद चित्रण किया है। उन्होंने अपनी इस कथाकृति में गणिकाओं की अद्भुत उत्पत्ति - कथा (पीठिका : पृ. १०३) दी है । कथा यह है कि आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत मण्डलाधिपति राजा थे। वह एकस्त्री - व्रतधारी थे। एक बार कतिपय सामन्तों ने एक साथ अनेक कन्याएँ उनके पास भेजीं | अपनी रानी के साथ प्रासाद में बैठे हुए उन्होंने उन कन्याओं को देखा। रानी ने राजा से पूछा: "ये कन्याएँ किसकी हैं ?” “सामन्तों ने मेरे लिए कन्याएँ भेजी हैं।” राजा ने उत्तर दिया । रानी ने सोचा कि “इतनी कन्याओं में यदि एक या अनेक कन्याएँ राजा की प्रेमपात्री हो गईं, तो मैं उपेक्षिता हो सकती हूँ ।" सहसा राजा से रानी ने कहा : मैं प्रासाद से कूदकर अपने को विसर्जित कर रही हूँ ।" राजा ने पूछा: "ऐसा क्यों कहती हो ?” रानी बोली : " यहाँ आई हुई इन कन्याओं के कारण मैं शोकाग्नि में जलती हुई बड़े कष्ट से मरूँगी।” “अगर तुम्हारा यही निश्चय है, तो ये कन्याएँ घर में नहीं प्रवेश करेंगी।" राजा ने रानी को आश्वस्त किया। रानी ने कहा : “ अगर यह सच है, तो ये सभी कन्याएँ बाहर के ही आवास (बाह्योपस्थान) में रहें ।” राजा ने वैसा ही प्रबन्ध कर दिया। वे कन्याएँ छत्र और चामर लेकर राजा की सेवा करने लगीं । पुनः वे क्रम से गणों (राजवर्ग) में वितरित कर दी गईं। इसीलिए, वे 'गणिका' कहलाईं। गणिकाओं की उत्पत्ति का यही कारण है ।
गणिका की उत्पत्ति के प्रस्तुत विवरण से यह स्पष्ट है कि गणिकाओं का सम्बन्ध गणों से था। डॉ. मोतीचन्द्र का अनुमान है कि कदाचित् गण की आज्ञा से ही अग्रगणिका की
१. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य चतुर्भाणी (शृंगारहाट), भूमिका, पृ. ६८