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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ युग में गणिकागृह ही ललितकलाओं का प्रधान केन्द्र था और गणिकाएँ ही ललितकला की आचार्याएँ होती थीं । वसन्ततिलका के उत्तम नृत्य से परितुष्ट होकर राजा ने राजोचित पूजा - सत्कार से उसे सम्मानित करके विदा किया। वसन्ततिलका जब चलने लगी, तब वह अपने प्रशंसक धम्मिल्ल को सविनय निवेदनपूर्वक रथ पर बैठाकर अपने घर ले गई। वहाँ उसने उसके साथ हास्य, स्वैरालाप, गीत, रतिक्रीडा आदि विशिष्ट ललितकलागुणों और उपचार - सहित नवयौवन के आनन्द का अनुभव करते हुए जाने कितने दिन बिता दिये । २७१ वसन्ततिलका धम्मिल्ल को ललितकला का जो प्रशिक्षण देती थी, उसके लिए धम्मिल्ल के माता-पिता अपनी दासी के हाथों प्रति दिन आधा (अद्ध) सहस्र [पाठान्तर के अनुसार : आठ (अट्ठ) सहस्र] स्वर्णमुद्रा वसन्ततिलका की माता वसन्तसेना के पास भिजवाते थे । इस प्रकार, धम्मिल्ल के माता-पिता का, उनके अनेक पूर्वपुरुषों द्वारा अर्जित धन अपने पुत्र के भविष्य निर्माण में उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार सूखी - चिकनी बालू मुट्ठी से खिसक जाती है 1 गणिकासक्त धम्मिल्ल के शोक में उसके माता-पिता मर गये और उसकी विवाहिता पत्नी यशोमती घर बेचकर नैहर चली गई । उस युग के राजसमाज या समृद्ध श्रेष्ठी समाज की पूर्णता के लिए गणिकाएँ आवश्यक अंग थीं। इसीलिए, तद्युगीन नीतिकारों ने चातुर्य के पाँच कारणों (देशाटन, पण्डितमित्रता, वारांगना-सम्पर्क, राजसभा में प्रवेश तथा अनेक शास्त्रों का अध्ययन-अनुशीलन') में वारांगनासम्पर्क को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । इसीलिए 'ललितविस्तर' की कलासूची में 'वेशिकम्' का उल्लेख हुआ है । यह दत्तक आचार्य द्वारा निर्मित एक शास्त्र था, जिसे विशाखिल और वात्स्यायन ने पल्लवित किया । 'वेशिकम्' का सम्बन्ध उस वैशिक व्यापार- कला से है, जो प्राचीन भारत की रूपाजीवाओं के बीच प्रचलित थी। इस वैशिक व्यापार-कला पर दामोदरगुप्त ने 'कुट्टनीमतं काव्यम्' नामक प्रबन्ध की रचना की है, जिसमें विकराला नाम की कुट्टनी ने मालती नामक वेश्या को इस कला की विस्तृत शिक्षा दी है। प्राचीन भागों में तो गणिकाओं का अतिशय रुचिर वर्णन मिलता है । " वसुदेवहिण्डी” के प्रायः समकालीन 'चतुर्भाणी' में तो गणिकाओं का बहुत ही भव्य चित्र अंकित किया गया है। 'चतुर्भाणी' में वेश्याओं का जो चरित दिखलाया गया है, उसको ठीक तरह से समझने के लिए कामसूत्र, नाट्यशास्त्र, मृच्छकटिक, वसुदेवहिण्डी इत्यादि का अध्ययन आवश्यक है; क्योंकि इन सबकी सम्मिलित सामग्री से वेश- जीवन का एक सर्वांग चित्र उपलब्ध होता है। परवर्ती काल में तो क्षेमेन्द्र ने अपने 'कलाविलास' के चतुर्थ सर्ग में 'वेश्यावृत्त' के अन्तर्गत केवल रुचिचपला १. देशाटनं पण्डितमित्रता च वाराङ्गना- राजस भ्राप्रवेशः 1 नित्यं हिशास्त्रार्थ विलोकनञ्च चातुर्यमूलानि भवन्ति पञ्च ॥ -(सूक्तिश्लोक) मित्र प्रकाशन, इलाहाबाद २. द्रष्टव्य 'कुट्टनीमतं काव्यम्' का अनुवाद : अनु. जगन्नाथ पाठक, 1 १.द्र. डॉ. मोतीचन्द्र तथा डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा 'शृंगारहाट' के नाम सम्पादित 'चतुर्भाणी' का प्राक्कथन और भूमिका २. उपरिवत् भूमिका - भाग, पृ. ६६
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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