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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ १५७ 'वसुदेवहिण्डी' में पिप्पलाद और अथर्ववेद की उत्पत्ति की कथा (गन्धर्वदत्तालम्भः पृ.१५२) के प्रसंग में बताया गया है कि पिप्पलाद ने अथर्ववेद की रचना की, जिसमें उसने मातृमेध, पितृमेध और अभिचार-मन्त्रों का प्रावधान किया । ज्ञातव्य है कि झाड़-फूंक करने, किसी को मन्त्रमुग्ध बनाने, जादू के मन्त्रों का बुरे काम के लिए प्रयोग करने आदि के लिए अभिचार-मन्त्रों की उपयोगिता मानी गई है। जादू करने के लिए मन्त्र फूंकने के काम को 'अभिचार' कहा जाता है। माया का प्रयोग (धम्मिल्लचरित : पृ.५६): विभिन्न विघ्नों को पार करते हुए धम्मिल्ल का रथ जब आगे बढ़ा, तब अस्त्र-शस्त्र से सज्जित कुछ चोर रास्ते में खड़े मिले । धम्मिल्ल ने एक ही लाठी के प्रहार से एक चोर को मार डाला। फिर, सहसा ढाल और भाला लिये युद्धकुशल अनेक चोर आकर लड़ने लगे। किन्तु, धम्मिल्ल ने सबको खदेड़ दिया। चोरों के भागते ही उनका सेनापति गरजता हुआ आया। जितेन्द्रिय धम्मिल्ल ने उसे मायाबल से यन्त्र (मशीन) की भाँति घुमाया और मौका देखकर एक ही भाले के प्रहार से मार डाला। महल बनाने की विद्या (तत्रैव : पृ. ६८): यह विद्या भी विकुळण की क्रिया से ही सम्बद्ध है। धम्मिल्ल को जंगली क्षेत्र में अचानक मिली एक सुन्दरी बालिका ने अपना परिचय देने के क्रम में बताया कि वह जिस कामोन्मत्त नामक विद्याधर की रति चाहती है, उसने स्वर्णबालुका द्वारा अपनी विद्या से एक महल बनाया है । वह विद्याधर वंशगुल्म में बैठकर विद्या सिद्ध करता था । धम्मिल्ल ने तलवार की परीक्षा के कुतूहल से वंशगुल्म काटने के क्रम में उस विद्याधर का सिर भी काट डाला, जिससे वह मर गया। प्रज्ञप्ति (पीठिका : पृ. ९२-९४; तत्रैव: पृ. ९६-१०८; श्यामलीलम्भ : पृ. १२४; नीलयशालम्भ : पृ. १६४; मदनवेगालम्भ : पृ. २४०; केतुमतीलम्भ : ३०८; तत्रैव : पृ. ३२९-३३०) : इस इन्द्रजालविद्या के सिद्ध या प्राप्त हो जाने से मनुष्य सर्वातिशायी शक्ति से सम्पन्न हो जाता था । स्वयं वसुदेव प्रज्ञप्ति-विद्या से बलशाली बने हुए थे। उनके पौत्र, कृष्णपुत्र प्रद्युम्न को भी प्रज्ञप्ति-विद्या सिद्ध थी। प्रद्युम्न को कनकमाला विद्याधरी से प्रज्ञप्ति-विद्या प्राप्त हुई थी। एक बार कनकमाला के पुत्र ने प्रद्युम्न को विशाल बावली में फेंक दिया था। वहाँ वह पानी के भीतर गड़े हुए शूल में गुँथ गया; किन्तु प्रज्ञप्ति-विद्या सिद्ध रहने से उसकी किसी प्रकार की प्राणहानि नहीं हुई । प्रज्ञप्ति-विद्या, अपने साधकों को विपक्ष की सारी बातों की सूचना भी देती थी, ताकि प्रज्ञप्ति-विद्या-सम्पन्न व्यक्ति आनेवाले अनिष्ट की ओर से सावधान हो जाता या उसके प्रतिकार का उपाय कर लेता था। विमान उत्पन्न करना, मकान-महल बनाना, भोजन-वस्त्र एकत्र कर लेना, शत्रु के विनाश के लिए सहसा सेना खड़ी कर देना, रूप बदल देना, उजाड़ देना, बसा देना, यानी हर असम्भव को छू-मन्तर से सम्भव कर दिखाना प्रज्ञप्ति-विद्या के वैशिष्ट्य थे। 'वसुदेवहिण्डी' में सर्वाधिक समर्थ पात्र की विशेषता है—उसका जैन परम्परा में भूतापसारण या विघ्नविनाश का काम ‘णमोकार मन्त्र' से लिया जाता है : वाहि-जल-जलण-तक्कर-हरि-करि-संगाम-विसहर-भयाई । नासंति तक्खणेणं नवकारपहाण-मंतेणं ॥ न य तस्स किंचि पहवइ डाइणि-वेयाल-रक्ख-मारि-भयं । नवकारपहावेणं नासंति य सयलदुरिताई ॥ (करकण्डु-कथानक : डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री-कृत 'प्राकृत-प्रबोध' से उद्धृत) 'वसुदेवहिण्डी' में भी ‘णमोकारमन्त्र' के जप द्वारा संकट से उबरने का उल्लेख (प्रभावतीलम्भ : पृ. ३५०) हुआ है। णमो अरहन्ताणं' के जप करने से राजाश्रीविजय की वज्रपात से रक्षा हुई थी। (केतुमतीलम्भ : पृ. ३१६)
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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