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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा अमयउसहपाणपरंमुहं ओसढमिति उविलयं मणोभिलसियपाणववएसेण उसहं तं पज्जेति। कामकहारतहितयस्स जणस्स सिंगारकहावसेण धम्मं चेव परिकहेमि। अर्थात्, “नरवाहनदत्त आदि की लौकिक कामकथाओं को सुनकर लोग एकबारगी कामकथा के प्रति अनुरक्त हो जाते हैं । पित्तज्वर से यदि किसी रोगी का मुँह कडुआ हो जाता है, तो उसे जिस प्रकार गुड़, शक्कर, खाँड, बरा आदि मीठी वस्तुएँ भी कड़वी लगती हैं, उसी प्रकार कामकथा में अनुरक्त लोग विपरीतपरिणामी सुगति-पथ की ओर ले जानेवाले धर्म को सुनना नहीं चाहते। समस्त सुख, धर्म, अर्थ और काम से प्राप्त होते हैं और धर्म स्वयं धर्म, अर्थ और काम का मूल है। धर्म के अर्जन में लोग प्राय: शिथिल रहते हैं। जिस प्रकार कोई वैद्य अमृत की भाँति गुणकारी (कड़वा) औषध पीने से कतरानेवाले खिन्न रोगी को उसके मनोनुकूल (मधुर) पान के व्याज से उस औषध को पिला देता है, उसी प्रकार कामकथा में अनुरक्त हृदयवाले लोगों के लिए शृंगारकथा के व्याज से मैं धर्म (कथा) कहता हूँ।" __ इस सन्दर्भ से स्पष्ट है कि आचार्य कथाकार संघदासगणी ने धर्मकथाओं को शृंगारिक और रोमांचक प्रेमाख्यानों के परिवेश में उपन्यस्त कर उन्हें लोकोपयोगी या जनास्वाद्य बनाया है। इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी' की पौराणिक कथाओं के लक्षण भले ही कामाकुलित हों, किन्तु उनका लक्ष्य धर्माभिनिबद्ध है। दूसरे शब्दों में कहें, तो 'वसुदेवहिण्डी' की कथाओं के शरीर कामप्रधान हैं सही, किन्तु उनकी आत्माएँ धर्मप्रधान हैं। ____ 'वसुदेवहिण्डी' पुराणेतिहास का समसामयिक परिकल्पन भी है। इसलिए, संघदासगणी ने पौराणिक कथाओं के माध्यम से तयुगीन समस्याओं को विशिष्ट सन्दर्भ देने की चेष्टा की है। इस क्रम में उन्होंने जहाँ समाज की प्रगल्भ यौन नग्नता का रोचक विन्यास किया है, वहीं सांस्कृतिक चेतना को अभिनव आयाम भी दिया है । इसके अतिरिक्त, लोकजीवन को धार्मिक एवं साम्प्रदायिक आवेश से मण्डित करने की भावना से अभिभूत होकर उन्होंने धर्मसाधना को प्रतिष्ठित करनेवाली पौराणिक महापुरुषों की चरितात्मक कथाओं का सफल संकलन और संश्लिष्ट संयोजन करके मानव को आत्मिक उत्थान का सारस्वत सन्देश दिया है। सूत्रवाक्य में कहें तो, 'वसुदेवहिण्डी' आकार-प्रकार से पुराण है, और कथा-कौतूहल की दृष्टि से इतिहास की गरिमा आयत्त करती है।
१. प्रस्तुत अवतरण इस शोधप्रन्थ के आधारभूत, यथाप्राप्य 'वसुदेवहिण्डी'-संस्करण, प्रथम खण्ड (आत्मानन्द
जैनसभा, भावनगर, गुजरात) में नहीं है। इसे डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'प्राकृत-साहित्य का इतिहास' (पृ. ३६३-६४) में ('वसुदेवहिण्डी', भाग २, मुनि जिनविजयजी के वसन्त-महोत्सव, संवत् १९८४ में प्रकाशित 'कुवलयमाला' लेख से) उद्धत किया है।