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________________ वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ १५३ कृष्ण के भी समुज्ज्वल रसपेशल चरित्रों से समुद्भासित हैं । संघदासगणी द्वारा विकल्पित पौराणिक कथाओं की मौलिकता इसलिए स्वीकार्य नहीं है कि ये पारम्परिक हैं; किन्तु मौलिकता इस अर्थ में स्वीकार्य है कि ये नये ढंग से गूँथी गई हैं, ग्रथन- कौशल से ही उसमें नव्यता आई है । इसीलिए, कलावादियों ने विन्यास की नवीनता को महत्त्व दिया है । संघदासगणी की कथा - रचना की प्रक्रिया में वस्तु की अपेक्षा उसकी विन्यास भंगी या प्रकाशन-पद्धति को मूल्य देना अधिक न्यायसंगत होगा। क्योंकि, उन्होंने सर्वजनीन और सार्वकालिक भावों और विचारों का नवीनता के साथ कल्पना - कुशल नियोजन किया है और इसी अर्थ में उनकी पौराणिक कथाओं की मौलिकता या अभिनवता है । श्रमण परम्परा के प्राकृत-पुराण, बारहवें श्रुतांग 'दृष्टिवाद' के पाँच भेदों (दिगम्बर-मत) में है I अन्यतम, प्रथमानुयोग के अन्तर्भूत हैं । 'वसुदेवहिण्डी' भी प्रथमानुयोग का ही कथाग्रन्थ इसलिए, 'वसुदेवहिण्डी' को गद्यनिबद्ध कथा - साहित्य का आदिस्रोत मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं । 'वसुदेबहिण्डी' की पौराणिक कथाओं को दिव्य-मानुषी कथाओं या धर्मकथा - परिणामी कामकथाओं के रूप में उपन्यस्त किया गया है । इसलिए कि दिव्यमानुषी कथा या कामकथा सरस और आकर्षक होती है। कहना न होगा कि संघदासगणी ने पौराणिक कथाओं में नूतन शिल्प-सन्धान और अभिनव रूप - विन्यास के माध्यम से मनोरम मार्मिकता और रमणीय भावरुचिरता के साथ ही कामाध्यात्म का समावेश करके अपनी अद्भुत कथाकोविदता प्रदर्शित की है। इस प्रसंग में ज्ञातव्य है कि जैन लेखकों ने ब्राह्मणों की पौराणिक कथाओं को नये आसंग में उपस्थित करके अपने नूतन दृष्टिकोण का परिचय दिया है; क्योंकि उनकी धारणा थी कि पौराणिक कथाओं के बार-बार श्रवण करने से पण्डितों का चित्त तृप्त नहीं होता । ' इसीलिए, विमलसूरि ने 'वाल्मीकिरामायण' के अनेक अंशों को कल्पित और अविश्वसनीय मानकर जैन रामायण के रूप में ‘पउमचरिय' की रचना की । इसी प्रकार, हरिभद्रसूरि ने अपने 'धूर्त्ताख्यान' (प्रा. धुत्तक्खाण) में ब्राह्मणों की पौराणिक कथाओं पर अभिनव शैली में तीव्र व्यंग्य किया । किन्तु, प्रश्न यह था कि निवृत्तिमार्गी जैनधर्म के उपदेशों को कौन-सी प्रभावोत्पादक शैली में प्रस्तुत किया जाय कि लोकरुचि धर्मप्रधान जैन आख्यानों की ओर आकृष्ट हो । जैन मुनियों लिए शृंगारिक कामकथाओं के सुनने और सुनाने का निषेध था, किन्तु सामान्य जन को साधारणतया कामकथाओं में ही रसोपलब्धि होती थी। आचार्य संघदासगणी ने इस प्रकार की विधि-निषेधात्मक स्थिति में एक मध्यम मार्ग निकाला। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि "सोऊण लोइयाणं णरवाहनदत्तादीणं कहाओ कामियाओ लोगो एगंतेण कामकहासु रज्जति । सोग्गइपहदेसियं पुण धम्मं सोडं पि नेच्छति य जरपित्तवसकडुयमुहो इव गुलसक्करखंडमच्छंडियाइसु विपरीतपरिणामो । धम्मत्थकाम - कलियाणि य सुहाणि धम्मत्थकामाण य मूलं धम्मो, तम्मि य मंदतरो जणो, तं जह णाम कोई वेज्जो आउरं १. भृशं श्रुतत्वान्न कथाः पुराणाः प्रीणन्ति चेतांसि तथा, बुधानाम् । - प्रबन्धचिन्तामणि : मेरुतुंग
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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