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________________ वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ १२५ ७. पूर्वभव की स्मृति की परभव में प्रतिक्रिया (प्रतिमुख : पृ. १११) कंचनपुर के दो वणिक् रत्न अर्जित करने के निमित्त एक साथ लंकाद्वीप गये। रत्न अर्जित करके वे दोनों प्रच्छन्न भाव से सन्ध्या में कंचनपुर लौटे । कुवेला में कहीं कोई रल छीन न ले, इसलिए उन्होंने उसे कटरेंगनी के झाड़ के नीचे गाड़ दिया और रात में वे दोनों अपने-अपने घर चले गये। सुबह होने पर उन दोनों में एक वणिक् कटरेंगनी के नीचे पड़े हुए रत्न को चुपके से निकाल ले गया। उसके बाद यथानिश्चित समय पर दोनों साथ आये और रत्न को न देखकर एक दूसरे पर शंका करते हुए आपस में हाथापाई करने लगे। फिर, गुस्से में आकर दाँतों से एक दूसरे को काटने लगे और पत्थर फेंक-फेंककर आपस में लड़ते हुए मर गये। मरने के बाद दोनों दुःखबहुल एक गति से दूसरी गति में जाकर जंगली भैंसे हो गये और फिर परस्पर सींगों से प्रहार करते हुए मरकर बैल के रूप में उत्पन्न हुए। फिर दोनों आपस में लड़ते हुए मरे और कालंजर पहाड़ पर वानरों के यूथपति के रूप में पैदा हुए। वहाँ भी जन्मान्तर के वैर का स्मरण करते हुए दोनों लड़ने लगे और खून से लथपथ होकर जमीन पर गिर पड़े। सहसा विद्युत्सम्पात की तरह चारणश्रमण वहाँ अवतीर्ण हुए। उन्होंने दोनों वानर-यूथपतियों को वैसी अवस्था में देख उन्हें समझाया कि तुम दोनों ने क्रोध के अधीन होकर व्यर्थ ही तिर्यग्योनियों का भोग करते हुए बार-बार मृत्यु को प्राप्त किया। इसलिए, वैर का अनुबन्ध छोड़ो। नारकी, तिर्यग्योनि और कुमनुष्यों के भव में क्लेश पाने की अपेक्षा शान्त हो जाओ और जिनवचन के ग्रहण के साथ प्रव्रज्या धारण करो, तभी सुगति प्राप्त होगी। अन्त में मुनिव्रत स्वीकर कर व्रत का पालन करते हुए दोनों ने सौधर्म स्वर्ग में देवत्व को प्राप्त किया। पुन: उनमें से एक देवलोक से च्युत होकर, मनुष्य-शरीर प्राप्त करके, गुरु के समीप जिनवचन सुनकर श्रमण हो गया और दूसरा वानरपति, कर्मनाश की अनिच्छा से, बुभुक्षा आदि परिषहों को सहता हुआ ज्योतिष्क देवता हो गया। कर्मनाश की अनिच्छा की स्थिति में भवान्तर-प्राप्ति और कर्मनाश की इच्छा से भवमुक्ति इस दार्शनिक रूढि का प्रतिफलन इस रूढकथा में हुआ है और पूर्वभव के वैरानुबन्ध की स्मृति से परभव में होनेवाली दुष्परिणति तो स्पष्ट ही है। ८. परलोक और धर्मफल में विश्वास (श्यामा-विजया-लम्भ : पृ. ११५) वाराणसी के राजा हतशत्रु की अल्पवयस्का पुत्री सुमित्रा एक दिन सोई हुई थी कि सहसा ‘णमो अरिहंताणं' कहती हुई जाग उठी। तब भिक्षुणियों ने उसे बताया कि उसने पूर्वभव के संस्कारवश अर्हत् को नमस्कार किया है। सुमित्रा जब सयानी हुई, तब उसे परलोक और धर्मफल के विषय में शंका उत्पन्न हुई। तब सुप्रभ पण्डित ने उसे परलोक में विश्वास उत्पन्न करनेवाली दो वणिक्पुत्रों की कथा सुनाते हुए कहा कि शरीर नष्ट होने पर भी देवलोक में तपस्या का फल प्राप्त होता है । यह सुनकर कुमारी सुमित्रा को विश्वास हो गया कि परलोक है और धर्म का फल भी है। इस रूढकथा में परलोक और धर्मफल के प्रति परम्परागत जन-विश्वास की सामान्य अवधारणा को समुद्भावित किया गया है।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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