SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्विसन्धान-महाकाव्य का सांस्कृतिक परिशीलन २१७ नीति की दृष्टि से महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं ।' द्विसन्धान-महाकाव्य में इन षड्गुणों का फल स्थान, वृद्धि तथा क्षय को भी बताया गया है ।२ टीकाकार नेमिचन्द्र के अनुसार विजिगीषु राजा को शत्रु के स्थान स्थिति में होने पर सन्धि तथा आसन गुणों को वृद्धि स्थिति में होने पर द्वैधीभाव तथा संश्रय गुणों को तथा क्षय स्थिति में होने पर यान तथा विग्रह गुणों को प्रयोग में लाना चाहिए। इस प्रकार षड्गुणों के प्रायोगिक रूप को स्पष्ट करते हुए उनके परिस्थित्यनुकूल प्रयोग की आवश्यकता पर बल दिया गया है । चतुर्विध उपाय राजनीतिशास्त्र के ग्रन्थों के अनुसार साम, दान, भेद तथा दण्ड-इन चतुर्विध उपायों की परराष्ट्र नीति-निर्धारण के संदर्भ में नियामक भूमिका थी । साम का अर्थ है- वचन - चातुर्य से वश में करना । इसके अन्तर्गत दो राज्यों में मित्रतापूर्ण एवं परोपकारिता की भावना रहती है । कुलीनों, कृतज्ञों, उदार - चित्त वालों एवं मेधावियों के साथ साम का व्यवहार करना चाहिए । ६ धनादि भौतिक वस्तु देकर शत्रु को वश में करना दान उपाय है । निर्बल राजा इस उपाय के द्वारा शक्तिशाली १. तु. - ‘तत्र पणबन्धः सन्धिः, अपकारो विग्रहः, उपेक्षणमासनम्, अभ्युच्चयो यानं, परार्पणं संश्रयः,सन्धिविग्रहापादानं द्वैधीभाव इति षड्गुणाः । ', अर्थशास्त्र, ७.१ तथा विशेष द्रष्टव्य – Johari, Manorama : Politics and Ethics in Ancient India, Varanasi, 1968, p.192-99 २. —- षड्गुणास्ते योनिस्तेभ्यः स्थानवृद्धिक्षयाः स्युः ॥', द्विस, ११.१५ पर 'तेभ्यः षड्गुणेभ्यः स्युः, के ? स्थान वृद्धिक्षयाः फलानि । तथाहि यस्मिन्गुणे परस्य वृद्धिरात्मनः क्षयस्तस्मिन् तिष्ठेत्स क्षयः, यस्मिन्परस्य क्षय आत्मनो वृद्धिस्तस्मिन्तिष्ठेत्सा वृद्धिः, यस्मिन्परस्य आत्मनश्च क्षयो न तत्स्थानम', पद- कौमुदी टीका., पृ. २०४ ३. ४. ५. ६. 'यदि यातव्यः शत्रुस्थानस्थितः स्यात्तेन सह सन्ध्यासने स्तः, वृद्धियुतश्चेद्भवेत्तेन सार्द्धं द्वैधीभावसंश्रयोस्तः। यदि क्षयी स्यात्तेन साकं यानविग्रहौ स्तः । ', द्विस, ११.१५ पर पद-कौमुदी टीका, पृ. २०४ महाभारत, आदिपर्व, २०२.२०; मनुस्मृति, ८. १९८; अर्थशास्त्र, २.१० (पृ.१४८); आदिपुराण, ८.२५३ तु . - ' त्वत्समस्तु सखानास्ति मित्रे साममिमं स्मृतम् । परस्परमनिष्टं न चिन्तनीयं त्वया मया । सुसहाय्यं हि कर्त्तव्यं शत्रौ साम प्रकीर्तितम् ॥', शुक्रनीतिसार, ४.२५,२८ द्रष्टव्य - डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ. ३५९
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy