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________________ अलङ्कार-विन्यास १९५ हतोऽपि चित्ते प्रसभं सुभाषितैर्न साधुकारं वचसि प्रयच्छति। कुशिष्यमुत्सेकभियावजानत: पदं गुरोर्धावति दुर्जनः क्व सः ॥१ प्रस्तुत पद्य का अर्थ है- मन ही मन कवियों की सूक्तियों पर पूर्ण रूप से मोहित होकर भी दुर्जन मुख से 'साधु, साधु' नहीं कहता है । किन्तु, शिष्य सुन्दर रचना पर सर्वथा मुग्ध तथापि कुशिष्यों की ईर्ष्या अथवा अहंकार के भय से उपेक्षा दिखाकर वचनों से प्रशंसा न करने वाले गुरु की समानता क्या वह दुर्जन कभी कर सकता है ? सामान्यत: हृदय से प्रफुल्ल होने पर वचनों से भी प्रशंसा अनायास ही हो जाती है, किन्तु यहाँ विरोधी क्रिया हो रही है, अत: विषमालङ्कार है। १६. परिसंख्या प्रश्नपूर्वक या बिना ही प्रश्न के जहाँ कही हुई वस्तु से अन्य की शब्द के द्वारा व्यावृत्ति होती हो अथवा अर्थसिद्ध व्यावृत्ति होती हो, वहाँ परिसंख्या अलङ्कार होता है । द्विसन्धान-महाकाव्य में परिसंख्या अलङ्कार का विन्यास इस प्रकार हुआ है भटाजुहूराणरथद्विपं नृपाः श्रयन्ति घातं चतुरङ्गपद्धतौ । परांशुकाक्षेपणमङ्गनारतौ विधौ कलङ्कोऽप्यहिषु द्विजिह्वता ॥ प्रस्तुत प्रसङ्ग में चतुरङ्ग युद्ध के अवसर पर ही राजा लोग पदाति, योद्धा, अश्व, रथी तथा हस्ती का वध करते थे अथवा शतरंज के खेल में ही घोड़े, हाथी, रथ आदि का सहारा लिया जाता था, राजा ही प्राण-वध का दण्ड देते थे; स्त्रियों से रमण के समय ही दूसरे का वस्त्रापहरण होता था; चन्द्रमा में ही कलंक था तथा सांपों के ही दो जीभे थीं- इन कथित वस्तुओं से अन्य वस्तुओं -निरर्थक हत्या, चोर आदि द्वारा वस्त्रमोचन, दुष्चारित्र्य तथा जनता में पैशुन्य या असत्य की व्यावृत्ति हो रही है, अत: परिसंख्या अलङ्कार है। १७. समुच्चय __ जहाँ कार्य के साधक किसी एक के होने पर भी 'खलकपोत' न्याय से दूसरा भी उसी कार्य का साधक हो अथवा गुणों या दो क्रियाओं या गुण और क्रियाओं १. द्विस,१६ २. सा.द.,१०.८१-८२ ३. द्विस,,१३७
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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