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________________ १६५ अलङ्कार-विन्यास व्यधादरीणां द्वीपेषु जयस्तम्भस्थितिं व्यधात्। व्यधाद्वेलावने धैर्याइण्डोऽस्य मधु भव्यधात् ।। यहाँ प्रथम तथा तृतीय पादों के आद्यर्ध में वर्तमान 'व्यधात्' पद के वर्णसमुदाय की द्वितीय तथा चतुर्थ पादों के अन्त्यार्ध में आवृत्ति हुई है, अत: यह भी आद्यन्त यमक है । पादगत आदि और अन्त के भागों की कहीं व्यवधानरहित एवं कहीं व्यवधानसहित आवृत्ति होने पर अव्यपेत व्यपेत आद्यन्त यमक होता है । द्विसन्धान-महाकाव्यगत इसका उदाहरण इस प्रकार है शुद्धां शुद्धान्तवसीतं सङ्गत: कर्मसङ्गतः । मुख्योद्यावो ददे मुख्यो वाष्येण त्र्यंजलं जलम् ।।२ यहाँ प्रथम पाद के आदि में शुद्धां' पद के और चतुर्थ पाद के अन्त में 'जलं' पद के वर्णसमुदायों की व्यवधानरहित तथा द्वितीय और तृतीय पादों के आदि और अन्त में क्रमश: ‘सङ्गत: व मुख्यो' पदों के वर्णसमुदायों की व्यवधानसहित आवृत्ति हुई है । अत: यहां अव्यपेत व्यपेत आद्यन्त यमक है । उपर्युक्त उदाहरणों के अतिरिक्त आद्यन्त यमक के कतिपय अन्य उदाहरण, जो कि विभिन्न यमकों के मिश्रण के फलस्वरूप मिश्र यमक अथवा संकर यमक भी कहे जा सकते हैं, द्विसन्धान-महाकाव्य में दृष्टिगत होते हैं । यथा मतङ्गजानामधिरोहका हता मतं गजानां विवशा विसस्मरू । तदीयपङ्क्त्या चपलायमानया परे विभिन्नाश्च पलायमानया ॥ यहाँ प्रथम और द्वितीय पादों के आदि में 'मतङ्गजानां' पद के वर्णसमुदाय की और तृतीय व चतुर्थ पादों के अन्त में 'चपलायमानया' पद के वर्णसमुदाय की व्यवधानसहित आवृत्ति हुई है । इस प्रकार प्रथम-द्वितीय पादों में आदियमक तथा तृतीय-चतुर्थ पादों में अन्त यमक होने से यहाँ व्यपेत आद्यन्त यमक कहा जा सकता १. द्विस.,१८.१२९ २. वही,१८.१०२ ३. वही,६.४१
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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